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भक्तामर - स्तोत्र
तमेव विदित्वाऽलिमृत्युमेति, नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥
__ --यजु० ३११८ जो अन्धकार से सदैव दूर है, जिसकी सूर्य जैसी कान्ति हैं, उस महापुरुष को मैं जानता हूं। उसको जानकर ही मृत्यु से परे पहुंचा जाता है, वहाँ पहुँचने के लिए दूसरा कोई मार्ग ही नहीं हैं। त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्य,
ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनङ्गकेतुस् । योगीश्वरं विद्रित - योगमनेकमेकं ,
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥२४॥ अन्वयार्थ - (सन्तः) साधू - सन्त (त्वाम) आपको (अव्ययम्) अविनाशी (विभुम्) व्यापक ( अचिन्त्यम् ) अचिन्त्य (असंख्यम्) असंख्य (आद्यम्) आदि (ब्रह्माणम्) ब्रह्मा (ईश्वरम्) ईश्वर (अनन्तम्) अनन्त, (अनंगकेतुम्) कामदेव के नाशार्थ केतु - तुल्य (योगीश्वरम्) योगीश्वर (विदितयोगम्) योग के वेत्ता, (अनेकम् ) अनेक (एकम्) एक (ज्ञान-स्वरूपम्) ज्ञान स्वरूप और (अमलम्) निर्मल प्रवदन्ति) कहते हैं ।२४। .. भावार्थ -हे भगवन् ! संसार के बड़े-बड़े ज्ञानी सत्
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