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भक्तामर स्तोत्र
दिया, परन्तु क्या कभी वह गिरिराज सुमेरु के शिखर को भी विकम्पित कर सका है ? कभी नहीं।
टिप्पणी उक्त श्लोक की यह भावना है— “देव ! आप दिव्य-शक्ति के अक्षय निधि हैं । आपकी कृपा से मुझ में भी ब्रह्मचर्य की वह दिव्य-शक्ति सम्भूत हो, जिससे मैं विश्व - सुन्दरियों के मोह-पास को तोड़ सक।" निधूम - वर्तिरपवर्जित - तैलपूरः,
___ कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि । गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां,
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाशः॥१६॥ अन्वयार्थ-(नाथ ! ) हे स्वामिन् ! आप (निळू मवर्तिः) धुएँ तथा बाती से रहित, निर्दोष प्रवृत्ति वाले और (अपवर्जित तैलपूरः) तेल से शून्य होकर भी (इदम्) इस (कृत्स्नम् ) समस्त (जगत्त्रयम्) त्रिभुवन को (प्रकटी करोषि) प्रकाशित कर रहे हैं, तथा आप (चलिताचलानाम ) पर्वतों को कम्पायमान कर देने वाली (मरुताम् ) हवाओं के लिए (गम्ये न) गम्य नहीं हैं- वे भी आप पर असर नहीं कर सकतीं। इस तरह (त्वम्) आप (जगत्प्रकाशः) संसार को प्रकाशित करने वाले, (अपरः दीपः)
अद्वितीय दीपक (असि) हैं ॥१६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org