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________________ १४ भक्तामर स्तोत्र अवश्य खिलेंगे । आचार्य कहते हैं, कि भला जब आपके नाम के उच्चारण मात्र से पाप नष्ट हो जाते हैं, तो स्तुति से तो अवश्य होंगे हो । प्रस्तुत स्तुति-श्लोक का पाठ करते समय साधक को यह भावना भानी चाहिए कि-- "भगवन् ! मैं कमल हूं, आप रवि हैं । आपके दिव्य आलोक का स्पर्श पा कर मेरे अनन्त अध्यात्मिक जीवन-कमल का विकास हो, मेरे अनन्त आनन्द की अभिवृद्धि हो।" नात्यद्भुतं भुवन - भूषण ! भूतनाथ ! भूतगुणभुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः । तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किंवा, भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥१०॥ अन्वयार्थ--(भुवनभूषण ! ) हे संसार के भूषण ! (भूतनाथ ! ) हे प्राणियों के स्वामी ! (भूतैः गुणैः) सच्चे गुणों के द्वारा (भवन्तम् अभिष्टुवन्तः) आपकी स्तुति करने वाले पुरुष (भुवि) पृथ्वी पर ( भवन्तः ) आपके (तुल्याः) समान ( भवन्ति ) हो जाते हैं ( इदम् अत्यद्भुतं न ) यह बड़े आश्चर्य की बात नहीं है। ( वा ) अथवा (तेन): उस स्वामो से (किम् ) क्मा प्रयोजन है ? (यः) जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001421
Book TitleBhaktamara stotra
Original Sutra AuthorMantungsuri
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1987
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, M000, & M010
File Size3 MB
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