SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भक्तामर स्तोत्र भला वह भीषण महासमुद्र, जिसमें प्रलयकाल के अन्धड़ से विक्षुब्ध हुए हजारों मगरमच्छ उछल रहे हों, कभी भुजाओं से तैर कर पार किया जा सकता है ? कभी नहीं। सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश ! __ कतुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवत्तः । प्रोत्याऽऽत्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्र, नाभ्येति कि निशिशोः परिपालनार्थम् ॥५॥ __ अन्वयार्थ -- (मुनीश) हे मुनियों के स्वामी ! (तथापि) तो भी (सःअहम् ) वह अल्पज्ञ मैं, (विगतशक्तिः अपि) शक्ति रहित होते हुए भी (भक्तिवशात्) भक्ति के वश (तव) आपकी (स्तवम्) स्तुति (कर्तुम्) करने के लिए (प्रवृत्तः) तैयार हुआ हूं। (मृगः) बेचारा हिरन (आत्मवीर्य अविचार्य) अपनी शक्ति का विचार किये बिना केवल (प्रीत्या) प्रेम के वश (निजशिशोः) अपने बच्चे की (परिपालनार्थम) रक्षा के लिए (किम्) क्या (मृगेन्द्र न अभ्येति) सिंह के सामने नहीं अड़ जाता है ? अर्थात् अड़ ही जाता है। भातार्थ- हे मननशील मुनियों के स्वामी ! यद्यपि मैं आपके अनन्त गुणों का वर्णन कर सकने में सर्वया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001421
Book TitleBhaktamara stotra
Original Sutra AuthorMantungsuri
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1987
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, M000, & M010
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy