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भक्तामर-स्तोत्र
(समुद्यतमतिः) तत्पर हो रहा हूं। (बालम्) बालकअज्ञानी को (विहाय) छोड़कर (अन्यः) दूसरा (कः जनः) कौन मनुष्य (जल-संस्थितम्) जल में स्थित रहे हुए (इन्दुविम्बम्) चन्द्रमा के प्रतिबिम्व को (सहसा) बिना विचारे (ग्रहीतुम्) पकड़ने की (इच्छति) इच्छा करता है ? अर्थात् कोई भी नहीं करता ॥३॥
भावार्थ-- हे देवताओं से पूजित सिंहासन वाले जिनेंद्र ! मैं कितना अधिक निर्लज्ज मूर्ख हूँ, जो कि बुद्धि न होने पर भी आपकी स्तुति करने के लिए तैयार हो गया हूँ। मेरा यह उपक्रम, जल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमण्डल को ग्रहण करने के समान है। नासमझ बालक के सिवा भला कौन ऐसा वयस्क मनुष्य होगा, जो जल में पड़ने वाले चन्द्र विम्ब को पकड़ने की इच्छा करे ?
टिप्पणी आचार्यश्री भगवान् के गुणों का वर्णन करने में अपनी बालकों जैसी अज्ञानता सूचित करते हैं। जल में प्रतिबिम्बित चन्द्र को पकड़ने वाले अबोध बालक का उदाहरण बहुत ही हृदय-स्पर्शी है। जिस प्रकार जल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा को पकड़ना असम्भव है, उसी प्रकार आपकी अनन्त महिमा को
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