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वीर-स्तुति कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं चउत्थं अज्झत्थ-दोसा । एआणि वंता अरहा महेसी, न कुव्वइ पाव न कारवेइ ॥२६॥
श्री वीर स्वामी क्रोध को, अभिमान, माया को तथा । चौथे भयंकर लोम को अध्यात्म दोषों को तथा ॥ सारी तरह से त्याग करके हो गए अर्हत-मुनी । खुद पाप ना करते कमी नाही कराते हैं गुणी ॥२६॥
क्रोध, मान, तथैव माया, लोभ का संहार कर आत्म-दोषों का वमन कर बन गए अरिहन्तवर । वीर दिव्य महर्षि थे, जग में उजाला कर दिया, पाप कृत न किया, न करवाया, न अनुमोदन किया ॥२६॥
संसार में सर्वश्रेष्ठ महर्षि भगवान महावीर क्रोध, मान, माया, और लोभ आदि अन्तरंग दोषों का पूर्णतया त्याग कर अर्हन्त बन गए । भगवान ने पापाचरण न कभी स्वयं किया, न दूसरों से करवाया और न करने वालों का अनुमोदन ही किया।
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