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________________ वीर-स्तुति खेयन्त्रए से कुसले महेसी, अणंतनाणी य अणंतदंसी । जसंसिणो चक्खु - पहे ठियरस, जाणाहि धम्मं च धिइंच पेहि ॥३॥ श्री वीर आत्म-स्वरूप के ज्ञाता तथा खेदज्ञ थे। दुष्कर्म-कुश-नाशक, महषि अनंत-दर्शक विज्ञ थे । सबसे अधिक यशवंत, लोचन मार्ग-संस्थित जानिए । उनके बताए धर्म को, उनकी धृती को देखिए ॥३॥ आत्म - दर्शी खेद के ज्ञाता, महामुनि वीर थे, कर्मदल के नाश करने में कुशल, अतिधीर थे। ज्ञान - दर्शन था अनन्त, अनन्त कीर्ति - वितान था, , नयन-पथ-गत लोक-पति का धर्म, धैर्य महान था ।।३।। आर्य जम्बूस्वामी के प्रश्न पर श्रीसुधर्मास्वामी गणधर ने.' उत्तर दिया ---भगवान महावीर संसारी जीवों के दुःखों के. वास्तविक स्वरूप को जानते थे, क्योंकि उन्होंने उस कर्मविपाकजन्य दुःख को दूर करने का यथार्थ उपदेश दिया है । आत्मा के सच्चिदानन्दमय सत्यस्वरूप के द्रष्टा थे। कर्मरूपी कुश को उखाड़ फेंकने में कुशल थे, महान ऋषि थे, अनन्त पदार्थों के ज्ञाता-द्रष्टा थे, और अक्षय यशवाले थे। भगवान का त्यागमय जीवन जनता की आँखों के सामने स्पष्ट खुला हुआ था। अथवा चक्षुःपथस्थित थे, अर्थात् आँखों के समान हित-अहितअच्छे-बुरे मार्ग के दिखानेवाले थे। भगवान की महत्ता जानने के लिए उनके बताए हुए जन-कल्याणकारी धर्म को तथा संयम की अखण्ड दृढ़ता को देखना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001420
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1981
Total Pages58
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Worship, & agam_related_other_literature
File Size2 MB
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