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जैनदर्शन में मतिज्ञान
37 का वचन ध्यानार्ह है । वे कहते हैं मतिज्ञानी तावत् श्रुतज्ञानेनोपलब्धेषु अर्थेषु...द्रव्याणि ध्यायति (मनुते) तदा मतिज्ञानविषयः सर्वद्रव्याणि न तु सर्वा: पर्यायाः .... तथा श्रुतग्रन्थानुसारेण सर्वाणि धर्मादीनि जानाति, न तु तेषां सर्वपर्यायान् । (१.२७) यह स्पष्टत: दिखाता है कि जिसे जैन मतिज्ञान कहते हैं वह मूलत: मनन है और प्रथम श्रवण (श्रुत) है और बाद में ही मति (मनन) है। श्रुत के आधार पर ही मनन (मति) चलता है। उमास्वाति लिखते हैं : श्रुतं मतिपूर्वम् । : (१.२०) प्रथम मति होती है और पश्चात् श्रुतज्ञान होता है। यहाँ मति का संकुचित अर्थ करके मात्र इन्द्रियप्रत्यक्ष समझने में आता है और कहा जाता है कि शब्द के सुनने (श्रावण प्रत्यक्ष) के पश्चात् ही शब्दार्थ का ज्ञान (श्रुतज्ञान) होने से श्रुतज्ञान के पूर्व मतिज्ञान अवश्य होता है। अर्थात्, पहले श्रावण प्रत्यक्षरूप मतिज्ञान होता है और पश्चात् शाब्दज्ञान (श्रुतज्ञान) होता है। यदि मति का अर्थ मनन किया जाय तो क्रम विपरीत हो जाता है। उपर उद्धृत सिद्धसेनगणिवचन 'मति' के 'मनन' अर्थ का समर्थन करता है और स्वयं उमास्वाति हमें कहते हैं कि मन का विषय श्रुत है, अर्थात् गुरुमुख से जो सुना उस पर मन मनन करता है। श्रुतमनिन्द्रियस्य । (२.२२) ये सब स्पष्टत: दिखाते है कि जैनोंने तृतीय सोपान मनन को ही विशेष प्रकार के ज्ञान मतिज्ञान में परिवर्तित कर दिया है - तथापि मूल मनन के अवशेष रह गये हैं। - चार सोपानों की योजना में श्रद्धा (दर्शन) पश्चात् श्रवण का क्रम है। श्रवण का कारण श्रद्धा है। अध्यात्मविद्या में यह स्वीकार स्वाभाविक है। भगवतगीता में भी कहा गया है कि श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् । अर्थात्, जिसे श्रद्धा हुई है वह गुरु से ज्ञान प्राप्त करता है। यह श्रुतज्ञान है। इस प्रकार श्रद्धा को श्रुतज्ञान का कारण माना गया है। इस श्रुतज्ञान के पूर्व श्रावण प्रत्यक्ष होने पर भी अध्यात्मविद्या या साधक को उसका कोई उपयोग नहीं है - यह अध्यात्म का सोपान नहीं बन सकता। अत: उसको श्रुतज्ञान का कारण मानने की अपेक्षा श्रद्धा को ही श्रुतज्ञान का कारण माना गया है। अध्यात्मविद्या में श्रुतज्ञान का कारण श्रावण इन्द्रियप्रत्यक्ष नहीं है अपितु श्रद्धा ही है। प्रमाणलक्षण
जैन तार्किक उस ज्ञान को प्रमाण मानतें हैं जो अविसंवादी भी हो22 और व्यवसायात्मक भी हो । अविसंवाद का अर्थ है ज्ञान और विषयस्वभाव के बीच मेल अर्थात् जो धर्म विषय में हो उसका ज्ञान में भी भासमान होना, एवं ज्ञान और तज्जन्य प्रवृत्ति के बीच संवाद । अविसंवादिता व्यवसायात्मकतायत्त है ।24
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