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________________ जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान पश्चात् उसका सामान्य अर्थ (Meaning) ग्रहण करते हैं (अवग्रह) । पश्चात् विशेष अर्थ (तात्पर्यार्थ) सोचते हैं जो अनेक विकल्प (alternatives) उपस्थित करता है। यह है ईहा । तत् पश्चात् उन विकल्पों पर विशेष विचारणा-परीक्षा करके एक के बाद एक विकल्प को दूर करके अन्तत: एक विकल्प को निर्णय के रूप में स्थापित किया जाता है। यह है अवाय । इस निर्णय-तात्पर्यार्थ को मन में धारण करके (धारणा) बाद में अन्य वस्तु के विचार की ओर बढ़ते हैं। उद्धृत वाक्य में प्रथम दो भूमिकाओं अवग्रह और ईहा का उल्लेख है, किन्तु वाद की दो भूमिकाओं की हम कल्पना कर सकते हैं। वाक्य अत्यन्त स्पष्टत: सूचित करता है कि चार भूमिकाएँ मनन की हैं। अवग्रह से प्रारम्भ होकर धारणा तक समग्र प्रक्रिया मनन की है। इस प्रकार अवग्रहादि चार भूमिकाएँ समग्र मनन की प्रक्रिया में घटित होती हैं, किन्तु मनन में प्रयुक्त किसी भी प्रमाण में-इन्द्रियप्रत्यक्ष अतिरिक्त - घटित नहीं होती। जिन्होंने मनन को एक विशिष्ट प्रकार के ज्ञान-मतिज्ञानमें परिवर्तित किया वे जैन चिन्तक इन चार भूमिकाओं को मतिज्ञान में लागू करने की बात का त्याग नहीं कर सके, परन्तु वे मतिज्ञान के प्रत्येक प्रकार में न तो चार भूमिकाएँ स्वीकृत कर सके या न तो घटित कर सके। इस प्रकार उन्होंने मनन की चार भूमिकाओं की विरासत अवशेष रूप में मतिज्ञान में कायम रखी। उपरान्त, मनन की इन चार भूमिकाओंने इन्द्रियप्रत्यक्ष के सविस्तृत सिद्धान्त का निर्माण करने में जैन तार्किकों को बड़ी सहाय की। अवग्रहादि के बहग्राही आदि भेद और मनन उमास्वाति अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा में से प्रत्येक के बहुग्राही, एकग्राही, बहुविधग्राही, एकविधग्राही, क्षिप्रग्राही, अक्षिपग्राही, निश्रितग्राही, अनिश्रितग्राही, संदिग्धग्राही, असंदिग्धग्राही, ध्रुवग्राही, अध्रुवग्राही ऐसे बारह बारह भेद गिनाते हैं। इन सभी भेदों की समजूती देना जरूरी नहीं है, किन्तु एक निरीक्षण तो करना चाहिए कि इन भेदों की दी गई परम्परागत समजूती अनेक स्थलों पर जचती नहीं है और तर्क के सामने टिक नहीं सकती। उदाहरणार्थ, अवाय के विषय में कहना कि उसका एक भेद संदिग्धग्राही अवाय है, यह तो वदतोव्याघात है - 'माता मे वन्ध्या' जैसी बात है, यदि वह अवाय है तो संदिग्धग्राही कैसे हो सकता है ? और यदि संदिग्धग्राही है तो अवाय कैसे हो सकता है ? ऐसा तो नहीं है कि कोई अन्य के भेद यहाँ अवग्रहादि में लागू कर दिए गये हो ? 'confused, muddled thinking' जैसे शब्द प्रचलित हैं। संदिग्ध, अस्पष्ट चिन्तन-मनन संभवित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001419
Book TitleJain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagin J Shah
PublisherJagruti Dilip Sheth Dr
Publication Year2000
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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