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________________ जैनदर्शन में मतिज्ञान इन्द्रियप्रत्यक्ष, स्मृति आदि को मतिज्ञान के एक ही वर्ग में रखने का कारण यहाँ प्रश्न यह उपस्थित होता है की परस्पर अत्यन्त भिन्न स्वभाववाले इन्द्रियप्रत्यक्ष, स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, चिन्ता, अनुमान जैसे ज्ञानों को मतिज्ञान (मति-अ) के एक ही वर्ग में रखने का कारण क्या है ? इसका उत्तर जैन चिन्तकों निम्न प्रकार देते हैं । इन सभी ज्ञानों का कारण मतिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होने से, इन सब को मतिज्ञान के एक ही वर्ग में रखा गया हैं।' यहाँ मतिज्ञानावरणीय कर्म के अस्तित्व पर मतिज्ञान के अस्तित्व का आधार हो, ऐसा सूचित होता है। वास्तव में मतिज्ञान के अस्तित्व के कारण मतिज्ञानावरणीय कर्म का अस्तित्व है। मतिज्ञानावरणीय कर्म की विभावना मतिज्ञान की विभावना पर आधारित है; परन्तु इस से विपरीत मतिज्ञान की विभावना मतिज्ञानावरणीय कर्म की विभावना पर आश्रित नहीं है। मतिज्ञान का स्वरूप क्या है ? और उसमें परस्पर भिन्न स्वभाववाले ज्ञानों का समवेश क्यों किया गया है ?-इन महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के सन्तोषप्रद उत्तर किसी जैन ग्रन्थ में नहीं हैं । जो उत्तर दिया गया है वह मात्र पारिभाषिक, साम्प्रदायिक और dogmatic है, तार्किक या बुद्धिगम्य नहीं है। इस प्रश्न का सन्तोषप्रद उत्तर तो यह है कि मति यह औपनिषदिक चार सोपानों में से तृतीय सोपान मनन है और मनन में इन सभी ज्ञानों या प्रमाणों का प्रयोग होता है। अतः मनन को एक प्रकार के ज्ञान (मतिज्ञान) में जैनों ने परिवर्तित कर दिया फिर भी वह मूलतः मनन है इस हकीकत का अवशेष मतिज्ञान के एक ही वर्ग में इन्द्रियप्रत्यक्ष, स्मृति, आदि के समावेश की जैन मान्यता में रह गया है। मतिज्ञान में श्रुत का समावेश क्यों नहीं ? जैनों द्वारा जिसका उत्तर देना चाहिए ऐसा द्वितीय महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि परस्पर अत्यन्त भिन्न स्वभाववाले इन्द्रियप्रत्यक्ष, स्मृति आदि को मतिज्ञान के एक वर्ग में रखा तो श्रुत (आगमप्रमाण, शब्दप्रमाण) का समावेश भी मतिज्ञान में क्यों नहीं किया ? ऐसा तो क्या है जो जैनों को वैसा करने से रोकता है ? जैनों का उत्तर यही है कि उन ज्ञानों का कारण मतिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम है जब कि श्रुत का कारण श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम है और कारणभेद से उनका भेद है। यह उत्तर भी पारिभाषिक, साम्प्रदायिक और dogmatic होने से ग्राह्य या स्वीकार्य नहीं है। इतना ही नहीं अपि तु इस उत्तर के विषय में भी प्रश्न उपस्थित होता है कि दो भिन्न ज्ञानावरणीय कर्म - मतिज्ञानावरणीय और श्रुतज्ञानावरणीय - की कल्पना करने की आवश्यकता क्या थी? एक मतिज्ञानावरणीय कर्म से नहीं चलता ? यदि इन्द्रियप्रत्यक्ष, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001419
Book TitleJain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagin J Shah
PublisherJagruti Dilip Sheth Dr
Publication Year2000
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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