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________________ प्रथम व्याख्यान जैनदर्शन में श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) की विभावना जैन धर्मसम्प्रदाय जैन धर्म अनादि-अनंत है। उस का आविर्भाव-तिरोभाव होता है। जब वह तिरोहित होता है, ग्लानि प्राप्त करता है तब उसे पुनरुज्जिवित करने के लिए अवतारी पुरुष होते हैं । वे पुरुष दुःखमुक्ति के मार्गरूप जैन धर्म को पुनः प्रकट करते हैं। ये वीतरागी अवतारी पुरुष तीर्थंकर कहलाते हैं । इस प्रकार तीर्थंकर जैन धर्म के स्थापक नहीं हैं, किन्तु नवजीवन प्रदाता, व्याख्याता-प्रचारक-उपदेशक हैं। जैन धर्म का तत्त्व सनातन है। उस का पूर्णतः नाश नहीं होता, अपितु सङ्कोच-विस्तार होता रहता है। क्षीणता प्राप्त धर्मतत्त्व में नवचेतना भरने का कार्य तीर्थंकर करते हैं। जैन धर्म की तरह अन्य धर्म भी यही बात कहते हैं । तत्त्वतः प्रत्येक धर्म का कथन सत्य है। तीर्थंकर के लिए 'जिन' शब्द का भी प्रयोग होता है। संस्कृत मूल धातु जि (जीतना) से 'जिन' शब्द व्युत्पन्न हुआ है और आध्यात्मिक दृष्टि से उस का अर्थ होता है - 'वह व्यक्ति जिसने रागद्वेष पर विजय प्राप्त की है।' प्राचीनकाल में अनेक श्रमण सम्प्रदाय अपने रागद्वेषमुक्त प्रकृष्ट धर्मोपदेशकों के लिए 'जिन' शब्द का प्रयोग करते थे । अर्थात् उस काल में उस शब्द का प्रयोग उसके यौगिक अर्थ में होता था। कालान्तर में अन्य सम्प्रदायों ने 'जिन' शब्द का प्रयोग अपने रागद्वेषमुक्त प्रकृष्ट धर्मोपदेशकों के लिए करना छोड़ दिया और केवल एक ही सम्प्रदायविशेष ने अपने रागद्वेषमुक्त प्रकृष्ट धर्मोपदेशकों के लिए 'जिन' शब्द का प्रयोग जारी रखा । परिणामतः उस शब्द का अर्थसङ्कोच हुआ और वह रूढ अर्थ में एक ही सम्प्रदायविशेष के रागद्वेषमुक्त प्रकृष्ट धर्मोपदेशकों के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा, एवं वह सम्प्रदाय खुद 'जिनसम्प्रदाय', 'जिनशासन' और 'जैन धर्म' आदि नामों से पहेचाना जाने लगा और उस के अनुयायी ‘जैन' नाम से पहेचाने जाने लगे । सामान्यतः ऐसा अनुमान है कि इस रूढ अर्थ में 'जिन' शब्द का प्रयोग करीब ई. आठवी-नवमी शताब्दी से प्रारम्भ हुआ।' इस से पूर्व यह सम्प्रदाय 'निर्ग्रन्थ' शब्द से पहेचाना जाता था। बौद्ध पिटक के समय में मात्र इस सम्प्रदाय की पहेचान के हेतु 'निर्ग्रन्थ' शब्द रूढ हुआ हो ऐसा प्रतीत होता है, किन्तु ऐसा अनुमान करना स्वाभाविक है कि एक काल ऐसा होगा जब इस शब्द का प्रयोग उस के यौगिक अर्थ में व्यापक रूप में होता होगा। उस का यौगिक अर्थ है-'ग्रन्थि (गाँढ) रहित' । ग्रन्थि के दो प्रकार हैं-रागद्वेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001419
Book TitleJain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagin J Shah
PublisherJagruti Dilip Sheth Dr
Publication Year2000
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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