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________________ ७० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ सेसं सिया अस्थि सिया णत्थि । जदि अस्थि, सिया संका० सिया असंका० । १६३. लोभसंजलणं संकामेंतो मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-बारसक० सिया अत्थि सिया पत्थि । जइ अत्थि, सिया संका० सिया असंका० । तिण्हं संजलणाणं णवणोकसायाणं च णियमा संकामओ। १६४. इत्थिवेदं संकामेंतो मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-बारसक०-णqसयवेद० सिया अस्थि सिया णत्थि । जइ अत्थि, सिया संका० सिया असंका० । तिण्हं संजलणाणं सत्तणोकसायाणं च णियमा संकामओ। लोभसंजलणस्स सिया संका० सिया असंका० । एवं णवंसयवेदं पि । णवरि इत्थिवेदस्स णियमा संकामओ। और कदाचित् असंक्रामक है। शेष प्रकृतियाँ कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं हैं। यदि हैं तो उनका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक है । विशेषार्थ-मायासंज्वलनके संक्रामकके लोभसंज्वलन अवश्य पाया जाता है किन्तु इसका आनुपूर्वीसंक्रमका प्रारम्भ होनेपर क्रम नहीं होता अतः यह लोभसंज्वलनका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक है यह कहा है। शेष खुलासा पूर्ववत् जानना चाहिये। १६३. जो लोभसंज्वलनका संक्रामक है उसके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषाय ये प्रकृतियाँ कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं हैं। यदि हैं तो वह इनका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् अस्संक्रामक है । किन्तु तीन संज्वलन और नौ नोकषायोंका नियमसे संक्रामक है। विशेषार्थ-आनुपूर्वीसंक्रम अन्तरकरण करनेके बाद प्रारम्भ होता है किन्तु मिथ्यात्व आदि पन्द्रह प्रकृतियोंकी क्षपणा पहले सम्भव है, इसीसे लोभसंज्वलन के संक्रामकके मिथ्यात्व आदि पन्द्रह प्रकृतियोंका कदाचित् सत्व और कदाचित् असत्त्व बतलाकर उनके संक्रमके विषयमें भी अनियम बतलाया है । अव रहीं शेष तीन संज्वलन और नौ नोकषाय ये बारह प्रकृतियां सो इनकी असंक्रमरूप अवस्था आनुपूर्वी संक्रमके प्रारम्भ होनेके बाद प्राप्त होती है, अतः लोभसंज्वलनके संक्रामकको इनका संक्रामक नियमसे बतलाया है। .६१६४. जो स्त्रीवेदका संक्रामक है उसके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्य ग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नपुसकवेद ये सोलह प्रकृतियां कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं हैं। यदि हैं तो इनका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक है । विन्तु तीन संज्वलन और सात नोकषायोंका नियमसे संक्रामक है । तथा लोभसंज्वलनका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक है । जो नपुसकवेदका संक्रामक है उसका भी इसी प्रकारसे कथन करना चाहिये किन्तु यह स्त्रीवेदका नियमसे सांक्रामक है। विशेषार्थ-क्षपकके स्त्रीवेदकी सत्वव्युच्छित्तिके पूर्व ही इन मिथ्यात्व आदि सोलह प्रकृतियोंकी सत्त्वव्युच्छित्ति हो जाती है । इसीसे स्त्रीवेदके संक्रामकके इनके सत्त्वके विषयमें अनियम बतलाकर संक्रमके विषयमें भी अनियम बतलाया है। किन्तु इसके संज्वलन क्रोध आदि तीन संज्वलन और सात नोकषाय इनका संक्रम पीछे तक होता रहता है, इसलिये इसे इन दस प्रकृतियोंका नियमसे संक्रामक बतलाया है। अब रहा लोभ संज्वलन सो आनुपूर्वी सक्रिम चालू हो जानेके समयसे ही इसका संक्रम होना बन्द हो जाता है अत: यह लोभसंज्वलनका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक है यह बतलाया है । नपुसकवेदीके स्त्रीवेदकी क्षपण। एक समय पूर्व या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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