SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २६ ] सण्णियासो दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपयडीणं संकामयाणं णत्थि अंतरं । एवं चदुसु गदीसु । णवरि मणुसअपज० सत्तावीसं पयडीणं संकाम० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । एवं जाव० । णवरि सव्वत्थ जहासंभवं असंकामयाणमंतरं गवेसणिजं, सव्विस्से परूवणाए सप्पडिवक्खत्तदंसणादो। ॐ सरिणयासो। $ १४६. एत्तो सण्णियासो कीरदि त्ति भणिदं होइ । तस्स दुविहो णिद्दे सो ओघादेसभेदेण । तत्थोधपरूवणट्ठमाह मिच्छत्तस्स संकामओ सम्मामिच्छत्तस्स सिया संकामो सिया असंकामओ। १४७. तं जहा–मिच्छत्तस्स संकामओ णाम अणावलियपविट्ठसंतकम्मिओ वेदयसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी च णिरासाणो। सो च सम्मामिच्छत्तसंकमे भजो, निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघसे सब प्रकृतियों के संक्रामकोंका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंके संक्रामकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि सर्वत्र यथासंभव असंक्रामकोंके अन्तरका विचारकर कथन करना चाहिये, क्योंकि सभी प्ररूपणा सप्रतिपक्ष देखी जाती है । विशेषार्थ ओघसे सब प्रकृतियोंके संक्रामकोंका सर्वदा सद्भाव होनेसे इनके अन्तरकालका निषेध किया है। यही बात चारों गतियोंमें भी जानना चाहिये। किन्तु लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य यह सान्तर मार्गणा है और उसका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अतः इसमें जिन सत्ताईस प्रकृतियोंका संक्रम सम्भव है उनके संक्रामकोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। इसीप्रकार अपनी-अपनी विशेषताको जानकर अन्य मार्गणाओंमें अन्तरकाल जानना चाहिये । शेष कथन सुगम है । * अब सन्निकर्षका अधिकार है। ६१४६. अब इसके आगे सन्निकर्षका विचार करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेश निर्देश। उनमेंसे ओघका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * मिथ्यात्वका संक्रामक सम्यग्मिथ्यात्वका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक है। ६१४७. जिसके मिथ्यात्वकी सत्ता उदयावलिके भीतर प्रविष्ट नहीं हुई है वह वेदकसम्यग्दृष्टि जीव तथा सासादनके बिना उपशमसम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वका संक्रामक होता है। इसके सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम भजनीय है, क्योंकि प्रथमोपशम सम्यक्त्वके उत्पन्न होनेके प्रथम १. श्रा०प्रतौ -संभवं संकामयाणमंतरं इति पाठः। २. ता० -श्रा०प्रत्योः सव्वपयडिवक्खत्तदंसणादो इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy