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________________ गा• २६] रणाणाजीवेहि कालो पलिदो० असंखे०भागो। सोलसक०-णवणोक० संकाम० जह० खुद्दाभव०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । एवं जाव० । उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सोलह कपाय और नौ नोकपायोंके संक्रामकोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण है तथा उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । विशेषार्थ-नाना जीवोंकी अपेक्षा अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता और यथासम्भव उनका बन्ध सदा पाया जाता है अतः ओघसे सब प्रकृतियोंके संक्रमका काल सर्वदा कहा है। किन्तु असंक्रमकी अपेक्षा कुछ विशेषता है। बात यह है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें मिथ्यात्वका संक्रम नहीं होता है और सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सम्यक्त्वका संक्रम नहीं होता है, किन्तु इन दोनों गुणस्थानवाले जीव सदा पाये जाते हैं अतः मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके असंक्रमाकोंका काल भी सर्वदा कहा है। सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम सासादन और मिश्र गुणस्थानमें नहीं होता है, किन्तु नाना जीवोंकी अपेक्षासे भी सासादनका जघन्य काल एक समय है, अतः सम्यग्मिथ्या वके असंक्रामकोंका जघन्य काल एक समय कहा है। जिन्होंने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है उनके अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करते समय अन्तमें एक समय कम एक श्रावलि काल तक अनन्तानुबन्धीका संक्रम नहीं होता। इसीसे अनन्तानुबन्धीचतुष्कके असंक्रामकोंका जघन्य क एक समय कम एक आवलिप्रमाण कहा है । सासादन या सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसीसे सम्यग्मिथ्यात्वके असंक्रामकोंका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। जिन्होंने अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना की है ऐसे जीव मिथ्यात्वमें या सासादनमें गये और वहाँ अनन्तानुबन्धीके संक्रामक होनेके पूर्व ही अन्य इसी प्रकारके जीव वहाँ उत्पन्न हुए। इस प्रकार ऐसे जीव वहाँ उक्त प्रकारसे यदि निरन्तर उत्पन्न होते रहें तो पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक ही उत्पन्न हो सकते हैं इससे आगे नहीं, इसीसे यहाँ अनन्तानुबन्धीचतुष्कके असंक्रामकोंका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। बारह कषायों और नौ नोकषायोंके असंक्रामकोंका जघन्य काल एक समय उपशमश्रेणिमें मरणकी अपेक्षा से और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रत्येक प्रकृतिके उत्कृष्ट उपशमकालकी अपेक्षासे कहा है। आशय यह है कि नाना जीवोंने उक्त प्रकृतियोंका उपशम किया और जिस समय जिस प्रकृतिका उपशम किया उसके दूसरे समयमें मरकर उनके देव हो जाने पर उक्त प्रकृतियोंके असंक्रमका जघन्य काल एक समय प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार निरन्तरक्रमसे नाना जीवोंने उक्त प्रकृतियोंका यदि उपशम किया तो भी उस उपशमकालका जोड़ अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं प्राप्त होता, इसलिये उक्त प्रकृतियोंके असंक्रमका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं होता। निम्नलिखित कुछ अपवादोंको छोड़कर यह ओघ व्यवस्था चारों गतियोंमें भी बन जाती है। अब कहाँ क्या अपवाद हैं इनका सकारण उल्लेख करते हैं-उपशमश्रेणिकी प्राप्ति मनुष्यगतिमें ही सम्भव है अतः मनुष्यगतिके सिवा शेष तीन गतियोंमें बारह कषाय और नौ नोकषायोंके असंक्रामकोंका निषेध किया है। चारों गतियोंमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कके असंक्रामकोंका जो जघन्य काल एक समय बतलाया है सो वह गति परिवर्तनकी अपेक्षासे बतलाया है। उदाहरणार्थ नरकगतिमें अनन्तानुबन्धोचतुष्कके असंक्रामक नाना जीव एक समय तक रहे और वे दूसरे समयमें मरकर अन्य गतिमें चले गये तो नरकगतिमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कके असंक्रामकोंका जघन्य काल एक समय बन जाता है। इसी प्रकार शेष तीन गतियोंमें उक्त काल घटित कर लेना चाहिये । या ऐसे नाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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