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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ ८१. संपहि एदमट्ठपदमवलंबिय सामित्तपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणइ* तानो पणुवीसं पि चरित्तमोहणीयपयडीओ अण्णदरस्स संकमंति ।
६ ८२. जेणेवमणंतरपरूविदणाएण सजाईयबज्झमाणपयडिपडिग्गहेणं पणुवीसचरित्तमोहणीयपयडीणं संकमसंभवो तेणेदाओ अण्णदरस्स सम्माइटिस्स मिच्छाइद्विस्स वा संकमंति त्ति भणिदं होइ ।।
एवमोघेण सामित्तं समत्तं । ____८३. संपहि आदेसपरूवणट्ठमुच्चारणं वत्तइस्सासो। तं जहा-सामित्ताणुगमेण दुविहो जिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्तसंकामओ को होइ ? अण्णदरो सम्माइट्ठी। सम्मत्तस्स संकमो कस्स ? मिच्छाइट्ठिस्स । सम्मामिच्छत्त-सोलसक०णवणोक० संकमो कस्स ? अण्णदरस्स सम्माइट्ठिस्स वा मिच्छाइडिस्स वा । एवं चदुसु वि गदीस । णवरि पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्त-मणुसअपज्जत्त-अणुदिसादि जाव सव्वडे त्ति सत्ताबीसंपयडीणं संकमो कस्स ? अण्णदरस्स । एवं जाव० ।
८१. अब इस अर्थपदका आश्रय लेकर स्वामित्वका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* चारित्रमोहनीयकी ये पच्चीस प्रकृतियाँ किसी भी जीवके संक्रम करती हैं ।
८२. यतः पहले यह न्याय बतला आये हैं कि बँधनेवाली सजातीय प्रत्येक प्रकृति प्रतिग्रहरूप होनेसे चारित्रमोहनीयकी पच्चीस प्रकृतियोंका प्रत्येक प्रकृतिमें संक्रम सम्भव है अतः ये सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि किसी भी जीवके संक्रम करती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
विशेषार्थ-चारित्रमोहनीयकी जिस समय जितनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है उस समय उनमें सत्तामें स्थित चारित्रमोहनीयकी सब प्रकृतियोंका संक्रम होता है। इस कारण एक साथ चारित्रमोहनीयकी सब प्रकृतियोंका संक्रम सम्भव है यह सिद्ध होता है। किन्तु चारित्रमोहनीयका बन्ध यथासम्भव मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनोंके सम्भव है इसलिये इन प्रकृतियोंके संक्रमके मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों प्रकारके जीव स्वामी हैं ऐसा यहाँ समझना चाहिये।
इस प्रकार ओघसे स्वामित्वका कथन समाप्त हुआ। ६८३. अब आदेशका कथन करनेके लिये उच्चारणाको बतलाते हैं। यथा-स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघसे मिथ्यात्वका संक्रामक कौन होता है ? कोई भी सम्यग्दृष्टि मिथ्यात्वका संक्रामक होता है। सम्यक्त्वका संक्रम किसके होता है ? मिथ्यादृष्टिके होता है। सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका संक्रम किसके होता है ? सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि किसीके भी होता है। इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिये । किन्तु पंचेन्द्रियतिथंचअपर्याप्त, मनुष्यअपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंका संक्रम किसके होता है ? किसी भी जीवके होता है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिये ।
विशेषार्थ-ओष प्ररूपणाका निर्देश स्वयं चूर्णिसूत्रकारने किया ही है जिसका खुलासा हम पहले कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ पर भी ओघ प्ररूपणाका खुलासा कर लेना चाहिये । मार्गणाओंमें भी जिन मार्गणाओंमें मिथ्यात्व और सम्यक्त्व ये दोनों
१. ता०प्रतौ -पडिग्गहेण श्रा०प्रतौ -पयडिग्गहेण इति पाठः ।
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