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________________ ४२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ गुणहाणि० असंखे० गुणा। संखे भागहाणि० असंखे०गुणा। असंखे०भागहाणि ० असंखे०गुणा । एवं मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु । णवरि जम्हि असंखे०गुणं तम्हि संखजगुणं कायव्वं । आणदादि णवगेवज्जा त्ति छब्बीसं पयडीणं विहत्तिभंगो । सम्म०-सम्मामि० सव्वत्थोवा असंखे०भागवड्डि० । असंखे०गुणवडि० असंखे०गुणी । संखे०भागवड्डि० असंखे०गुणा। संखे०गुणवड्डि० संखे० गुणा। संखे० भागहाणि० असंखेगुणा । अवत्त० असंखे० गुणा। असंखे०भागहाणि० असंखेजगुणा । अणुदिसादि सव्वढे त्ति विहत्तिभंगो। णवरि सम्म० संखेजगुणहाणी० णत्थि । एवं जाव० । ___ एव वड्डिसंकमो समत्तो। एत्थ भवसिद्धिएदरपाओग्गद्विदिसंकमट्ठाणाणि विहत्तिभंगादो थोवविसेसाणुबिद्धाणि सव्वकम्माणमणुगंतव्वाणि । एव विदिसंकमो समत्तो। संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातगुणहानिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातभागहानिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागहानिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि जहाँ असंख्यातगणा है वहाँ संख्यातगुणा करना चाहिए। आनत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भंग स्थितिविभक्तिके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धिके संक्रामक जीव सबसे थोड़े हैं । उनसे असंख्यातगुणवृद्धिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातभागवृद्धिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातगुणवृद्धिके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातभागहानिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अवक्तव्यपदके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागहानिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है किन्तु इनमें सम्यक्त्वकी संख्यातगणहानि नहीं है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इस प्रकार वृद्धिसंक्रम समाप्त हुआ। यहाँ पर सब कर्मों के भवसिद्ध और इतर जीवोंके योग्य स्थितिसंक्रमस्थान स्थितिविभक्तिसे थोड़ीसी विशेषताको लिए हुए जानना चाहिए। इस प्रकार स्थितिसंक्रम समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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