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________________ गा० ५८ ] उत्तरपयडिटिदिवड्डिसंकमे अप्पाबहुअं ४२१ ९०२. एत्थ कारणं संखे०भागहाणीए सण्णिपंचिंदियरासी पहाणो, सेसजीवसमासेसु संखेजभागहाणिं कुणंताणं बहुवाणमसंभवादो। संखेजगुणवड्डी पुण परत्थाणादो आगंतूण सण्णिपंचिंदिएसुप्पजमाणाणं सव्वेसिमेव लब्भदे, तहा एइंदिय-वियलिदियाणमसण्णिपंचिंदिएसुववजमाणाणं संखेजगुणवड्डी चेव होइ । एवमेइंदिय-बीइंदियाणं चउरिदियएसु वेइंदिय-तेइंदिएसु च समुप्पजमाणाणमेइंदियाणं संखेजगुणवड्डिणियमो वत्तव्यो । एवमुप्पजमाणासेसजीवरासिपमाणं तसरासिस्स असंखे०भागो, तसरासि सगउवक्कमणकालेण खंडिदेयखंडमेत्ताणं चेव परत्थाणादो आगंतूण तत्थुप्पजमाणाणमुवलंभादो । तदो परत्थाणरासिपाहम्मेण सिद्धमेदेसिं असंखेजगुणत्तं । ॐ संखेज भोगवडिसंकामया संखेज गुणा । १९०३. एत्थ वि तसरासी चेव परत्थाणादो पविसंतओ पहाणं, सत्थाणे संखे०भागवडिसंकामयाणं संखेजभागहाणिसंकामएहि सरिसाणमप्पहाणत्तादो। किंतु परत्थाणादो संखे०गुणवडिपवेसएहितो संखे भागवड्डिपवेसया बहुआ, संखेजगुणहीणद्विदिसंतकम्मेण सह एइंदियादिहिंतो णिप्पिदमाणाणं संखे०भागहाणिट्टिदिसंतकम्मेण सह तत्तो णिप्पिदमाणे पेक्खिऊण संखेजगुणहीणत्तादो । कथमेदं परिछिज्जदे ? एदम्हादो चेव ६६०२, यहाँ कारण यह है कि संख्यातभागहानि करनेवाले जीवोंमें संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवराशि प्रधान है, क्योंकि शेष जीवसमासोंमें संख्यातभागहानि करनेवाले बहुत जीव असम्भव हैं । परन्तु संख्यातगुणवृद्धि तो परस्थानसे आकर संज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाले सभी जीवोंके उपलब्ध होती है तथा जो एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव असंज्ञो पञ्चेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके संख्यातगुणवृद्धि ही होती है । इसीप्रकार जो एकेन्द्रिय और द्वीन्द्रिय जीव चतुरिन्द्रिय जीवोंमें तथा जो एकेन्द्रिय जीव द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके संख्यातगुणवृद्धिका नियम कहना चाहिए। इस प्रकार उत्पन्न होनेवाली समस्त जीवराशिका प्रमाण सराशिके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि सराशिको अपने उपक्रमणकालसे भाजित कर जो एक भाग प्राप्त हो तत्प्रमाण जीव ही परस्थानसे आकर वहाँ उत्पन्न होते हुए उपलब्ध होते हैं। इसलिए परस्थानराशिकी प्रधानतासे संख्यातगुणवृद्धि करनेवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं यह बात सिद्ध है। * उनसे संख्यातभागवृद्धिके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। 5६०३. यहाँ पर भी परस्थानसे प्रवेश करनेवाली त्रसराशि ही प्रधान है, क्योंकि स्वस्थानमें संख्यातभागवृद्धिके संक्रामक जीव संख्यातभागहानिके संक्रामक जीवोंके समान होते हैं, इसलिए उनकी प्रधानता नहीं है। किन्त परस्थानके आश्रयसे संख्यातगणवद्रिके प्रवेश करनेवाले जीव संख्यातभागवृद्धिके प्रवेश करनेवाले जीव बहुत हैं, क्योंकि संख्यातगुणे हीन स्थितिसत्कर्मके साथ एकेन्द्रिय आदिमेंसे निकलनेवाले जीव संख्यातभागहीन स्थितिसत्कर्मके साथ एकेन्द्रिय आदिमेंसे निकलनेवाले जीवोंको देखते हुए संख्यातगुणे हीन होते हैं। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-इसी सूत्रसे जाना जाता है । १. ता प्रतौ बहु [ आ-], श्रा०प्रतौ बहुअ. इति पाठः । २ ता०प्रतौ -कम्मे [हिं] इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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