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________________ गा० ५८ ] उत्तरपयडिट्ठिदिपदणिक्खेव संकमे सामित्तं * सामित्तं । ९ ८२८. समुत्तिणाणंतरं सामित्तमवसरपत्तं कायव्वमिदि अहियारसंभालण वयणमेदं । ३८६ * मिच्छत्त-सोलसकसायाणमुक्कस्सिया वडी कस्स ? $ ८२९. मिच्छत्ता दीणमुक्कस्सट्ठिदिसंकमवुड्डीए को सामिओत्ति पुच्छिदं होइ । * जो चउट्टाणियजवमज्झस्स उवरि अंतोकोडा कोडिडिदिमंतोमुहुत्तकामेमाणो सो सव्वमहंतं दाहं गदो तदो उक्करसहिदि पबद्धो तस्सावलियादीदस्स तस्स उक्कस्सिया बड्डी । $ ८३०. जा अंतोकोडा कोडिडिदिमंतोमुहुत्तं संकामेमाणो अच्छिदो उक्कस्सदाहवसेणुकस्सदि पबद्धो तस्सावलियादीदस्स विवक्खियकम्माणमुक्कस्सियडिदिसंकमबुड्डी होइ त सुत्तत्संबंधो। सा पुण अंतोकोडाकोडी अणेयवियप्पा, धुवट्ठिदीदो पहुडि समयुत्तरादिकमेण तत्तो संखेजगुणाओ ठिदीओ उल्लंघिय तदुक्कस्सवियप्पावाणादो । तत्थ किमुकस्संतोकोडाकोडीए समयूणसागरोवमकोडा कोडिपमाणाए इह ग्गहणं, आहो जहण्णा धुवट्ठिदिपमाणावच्छिण्णाए, उदाहो तप्पा ओग्गाए अजहण्णाणुकस्सवियप्पबिद्धा ति एत्थ णिण्णयकरणडुमिदं विसेसणं चउट्ठाणिय जवमज्झस्स उवरिति । तं च * स्वामित्वका अधिकार है । $ ८२८. समुत्कीर्तना के बाद अवसर प्राप्त स्वामित्व करना चाहिए इसप्रकार अधिकार की सम्हाल करनेवाला यह वचन है । * मिथ्यात्व और सोलह कपायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है । $ ८२६. मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमवृद्धिका स्वामी कौन है यह पृच्छा की गई है । * जो चतुःस्थानिक यवमध्यके ऊपर अन्तः कोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिका अन्तर्मुहूर्तकाल तक संक्रमण कर रहा है उसने अत्यन्त उत्कृष्ट दाहको प्राप्त होकर उससे उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया उसके एक आवलिके बाद उत्कृष्ट वृद्धि होती है । Jain Education International $ ८३०. जो अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिका अन्तर्मुहूर्त काल तक संक्रमण करता हुआ स्थित है, उसने उत्कृष्ट दाहवश उत्कृष्ट स्थितिबन्ध किया उसके एक आवलिके बाद विवक्षित कर्मों की उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमवृद्धि होती है ऐसा इस सूत्रका अर्थसम्बन्ध है । परन्तु वह अन्तःकोड़ास्थिति से लेकर एक समय अधिक आदिके क्रमसे अनेक प्रकारकी है, क्योंकि ध्रुवस्थिति से संख्यातगुणी स्थितिको उल्लंघन कर उसके उत्कृष्ट विकल्पका अवस्थान है । उसमेंसे एक समय कम कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण उत्कृष्ट अन्तःकोड़ाकोड़ीका यहाँ पर ग्रहण किया है या ध्रुवस्थितिप्रमाण जघन्य अन्तःकोड़ाकोड़ीका ग्रहण किया है या अजघन्योत्कृष्ट विकल्पवाली अन्तःकोड़ाकोड़ीका ग्रहण किया है इसप्रकार यहाँ पर निर्णय करनेके लिए 'चतुःस्थानिक यवमध्य के ऊपर ' यह विशेषण दिया है । वह चतुःस्थानिक यवमध्य दो प्रकारका है - सातप्रायोग्य और असात For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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