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________________ २७ गा० २६ ] समुकित्तणादिपरूवणं मणुसअपज्जत्तएसु मिच्छत्तस्स असंकमो। अणुद्दिसादि जाव सव्वढे त्ति सम्मत्तस्स असंकमो । एवं जाव अणाहारि त्ति । ५९. सव्व०-णोसव्वसंकमाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वाओ पयडीओ संकाममाणस्स सव्वसंकमो। तदणं० णोसव्वसंकमो । एवं जाव० । ६०. उकस्स-अणुकस्ससंकमाणुगमेण सत्तावीसपयडीओ संकामेमाणस्स उक्कस्ससंकमो। तदूणं अणुकस्ससंकमो । एवं जाव० । ६१. जहण्ण-अजहण्णसंकमाणु० सव्वजहणियं पयडिं संकामेमाणस्स जहण्णसंकमो। तदो उवरिमजहण्णसंकमो । का सव्वजहणिया पयडी णाम ? जा जहण्णसंखाविसेसिया । तत्तो उवरिमसंखाविसेसिया अजहण्णा णाम, पयडिविसयसंखाए विशेषता है कि पंचेन्द्रियतिर्यंचअपर्याप्त और मनुष्यअपर्याप्त जीवोंमें मिथ्यात्वका संक्रम नहीं होता । तथा अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व प्रकृतिका संक्रम नहीं होता। इसोप्रकार अनाहारक मागणा तक जानना चाहिये। विशेषार्थ—मिथ्यात्वका संक्रम सम्यग्दृष्टि जीवके ही होता है किन्तु पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्त और मनुष्यलब्ध्यपर्याप्त जीवके सम्यक्त्वकी प्राप्ति सम्भव नहीं, अतः इनके मिथ्यात्वके संक्रमका निषेध किया है। तथा सम्यक्त्वका संक्रम उसी मिथ्यादृष्टिके सम्भव है जिसके उसकी सत्ता है। यतः अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, अतः इनके सम्यक्त्वके संक्रमका निषेध किया है। शेष कथन सुगम है । ५९. सर्वसंक्रम और नोसर्वसंक्रमके अनुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और और आदेशनिर्देश । ओघसे सब प्रकृतियोंका संक्रम करनेवाले जीवके सर्वसंकम होता है और इससे न्यून प्रकृतियोंका संक्रम करनेवाले जीवके नोसर्वसंक्रम होता है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये। ६०. उत्कृष्टसंक्रम और अनुत्कृष्टसंक्रमानुगमसे सत्ताईस प्रकृतियोंका संक्रम करनेवाले जीवके उत्कृष्टसंक्रम होता है और इससे न्यून प्रकृतियोंका संक्रम करनेवाले जीवके अनुत्कृष्टसंक्रम होता है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चहिये । विशेषार्थ-अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टिंके मिथ्यात्वके सिवा सब प्रकृतियों का संक्रम सम्भव है, इसलिये यह उत्कृष्टसंक्रम है। तथा इसके सिवा शेष सब अनुत्कृष्टसंक्रम है। पर यह ओघ प्ररूपणा है। आदेशसे जहाँ जैसी प्रकृतियाँ और उनका बन्ध सम्भव हो तदनुसार उत्कृष्ट अनुत्कृष्टका विचार करना चाहिये । ६६१. जघन्यसंक्रम और अजघन्यसंक्रमानुगमकी अपेक्षा सबसे जघन्य प्रकृतिका संक्रम करनेवाले जीवके जघन्यसंक्रम होता है और इससे अधिक प्रकृतियोंका संक्रम करनेवाले जीवके अजघन्य संक्रम होता है। शंका-सबसे जघन्य प्रकृति इसका क्या तात्पर्य है ? समाधान-जो जघन्य संख्यासे युक्त है वह जघन्य प्रकृति है और इससे अधिक संख्या - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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