SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग० ५८] उत्तरपयडिविदिभुजगारसंकमे णाणाजीवेहिं अंतर ३८३ ८०५. एत्तिएणुक्कस्संतरेण विणा समयुत्तरमिच्छत्तद्विदिसंतकम्मेण सम्मत्तपडिलंभस्स दुल्लहत्तादो । कुदो एवं ? दुसमयुत्तरादिमिच्छत्तद्विदिवियप्पाणं संखेजसागरोवमकोडाकोडिपमाणाणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तभुजगारसंकमहेऊणं बहुलं संभवेण तत्थेव णाणाजीवाणं पाएण संचरणोवलंभादो। तदो तेहिं द्विदिवियप्पेहि भूयो भूयो सम्मत्तं पडिवजमाणणाणाजीवाणमेसो उक्कस्संतरसंभवो दट्ठव्यो । * अणंताणुषंधीणमवत्तव्वसंकामयंतरं जहणणेणेयसमओ, उक्कस्सेण चउवीसमहोरत्ते सादिरेये ।। ६८०६. एदाणि दो वि अणंताणुबंधीणमवत्तव्वसंकामयजहण्णुक्कस्संतरपडिबद्धाणि सुत्ताणि सुगमाणि । ® सेसाणं कम्माणमवत्तव्वसंकामयंतरं जहणणेणेयसमो, उकस्सेण संखेजाणि वस्ससहस्साणि । ८०७. एदाणि वि बारसक०-णवणोकसायाणमवत्तव्वसंकामयजहण्णुकस्संतरणिबद्धाणि सुत्ताणि सुबोहाणि । एवमेदेसिमवत्तव्वसंकामयाणमंतरं पदुप्पाइय सेसपदसंकामयाणमंतरसंभवासंकामयाणमंतरसंभवासंकाणिरायरणमुत्तरसुत्तमाह ६८०५. क्योंकि इतने उत्कृष्ट अन्तरके बिना मिथ्यात्वसम्बन्धी एक समय अधिक स्थितिसत्कर्मके साथ सम्यक्त्वकी प्राप्ति दुर्लभ है। शंका-ऐसा क्यों है ? समाधान—क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार संक्रमके हेतुभूत मिथ्यात्वके दो समय अधिकसे लेकर संख्यात कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिविकल्पोंके बहुलतासे सम्भव होनेके कारण उन्हीं में प्रायः नाना जीवोंका संचार उपलब्ध होता है, इसलिए इन स्थितिविकल्पोंके साथ पुनः पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले नाना जीवोंके यह उत्कृष्ट अन्तर सम्भव दिखलाई देता है। * अनन्तानबन्धियोंके अवक्तव्यसंक्रामकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात है। ___८०६. अनन्तानुबन्धियोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरसे प्रतिबद्ध ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। * शेष कर्मोंके अवक्तव्यसंक्रामकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार वर्षप्रमाण है। १८०७. बारह कषायों और नौ नोकषायोंके अवक्तव्यसंक्रामकोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरसे प्रतिबद्ध ये भी दोनों सूत्र सुबोध हैं। इसप्रकार इनके अवक्तव्यसंक्रामकोंके अन्तरका कथन करके शेष पदोंके संक्रामकोंके अन्तरमें सम्भव और असंक्रामकोंके अन्तरमें सम्भव शंकाके निराकरण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy