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________________ गा० ५८] उत्तरपयडिडिदिभुजगारसंकमे एयजीवेण अंतर ३७३ * मिच्छत्तस्स भुजगार-अवट्ठिदसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणणोण एयसमो । उक्कस्सेण तेवद्विसागरोवमसदं सादिरेयं । $ ७६७. एत्थ जहण्णंतरं भुजगारावट्ठिदसंकमेहिंतो एयसमयमप्पयरे पडिय विदियसमए पुणो वि अप्पिदपदं गयस्स वत्तव्वं । उक्कस्संतरं पि अप्पयरुकस्सकालो वत्तव्यो । णवरि भुजगारंतरे विवक्खिए अवविदकालेण सह वत्तव्यं ! अवट्ठिदंतरं च भुजगारकालेण सह वत्तव्बं । ® अप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहएणेणेयसमग्रो, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । . ६ ७६८. अप्पदरादो भुजगारावहिदाणमण्णदरत्थ एयसमयमंतरिय पडिणियत्तस्स जहण्णमंतरं, तदुभयकालकलावे अंतोमुहुत्तमेत्तावद्विदकालपहाणे उक्कस्संतरमिह गहेयव्वं । 8 एवं सेसाणं कम्माणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवज्जाणं । 5७६९. जहा मिच्छत्तस्स भुजगारादिपदाणमंतरपरूवणं कयं तहा सेसाणं पि कम्माणं सम्मत्त-सम्मामि वजाणं कायव्वं, विसेसाभावादो। एत्थतणविसेसपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमाह * मिथ्यात्वके भुजगार और अवस्थितसंक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य एक समय है और उत्कृष्ट साधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। ६७६७. यहाँपर भुजगार और अवस्थितसंक्रमसे एक समयके लिए अल्पसंक्रममें जाकर दूसरे समयमें पुनः बिवक्षितपदको प्राप्त हुए जीवके जघन्य अन्तर कहना चाहिए। उत्कृष्ट अन्तर भी अल्पतरके उत्कृष्ट कालप्रमाण कहना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि भुजगारपदका अन्तर विवक्षित होने पर अवस्थितके कालको अल्पतरके कालमें मिलाकर कहना चाहिए। तथा अवस्थितकालका अन्तर भुजगारकालको अल्पतरके कालमें मिलाकर कहना चाहिए। ___ * अल्पतरसंक्रामकका अन्तरकाल कितना है. ? जघन्य एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। ६७६८. अल्पतरसे भुजगार और अवस्थित इनमेंसे किसी एकमें ले जाकर एक समयके लिए अन्तरित कर पुनः लौटे हुए जीवके जघन्य अन्तर होता है। तथा अन्तर्मुहर्तमात्र अवस्थितकालप्रधान उन दोनोंके कालकलापप्रमाण यहाँ उत्कृष्ट अन्तर ग्रहण करना चाहिए। . * इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सिवा शेष कर्मोका अन्तरकाल जानना चाहिए। ६७६६. जिसप्रकार मिथ्यात्वके भुजगार आदि पदोंके अन्तरकालका कथन किया उसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष कोंके भी अन्तरकालका कथन करना चाहिए, क्योंकि मिथ्यात्वके कथनसे इनके कथन में कोई विशेषता नहीं है। अब यहाँपर विशेषताका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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