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________________ ३६४ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ एदमेवं होति ण पुण एवमेत्थ विवक्खा कया । किंतु कालपहाणत्तं विवक्खियं । तं कथं वदे ? सम्मत-सम्मामिच्छत्ताणमवद्विदसं कमस्स जहण्णुक्कस्सेणेयसमयोवएसादो । पुणो वेदयसम्मत्तं पडिवण्णो पढमछावहिं सव्वमप्पदरसंकमेणाणुपालिय तदो अंतोमुहुत्तासेसे पढमछावट्टिकाले अप्पदरकालाविरोहेणंतोमुहुत्तं मिच्छत्तेणंतरिय सम्मत्तं पडिवण्णो विदियछावट्ठि परिभमिय तदवसाणे परिणामपच्चएण पुणो विमिच्छत्तमुवगओ दव्वलिंगमाहप्पेणेक्कत्तीससागरोवमिसु देवेसुववण्णो । तत्थ वि सुक्कलेस्सापाहम्मेण संतकम्मादो हेट्ठा चैव बंधमाणस्स अप्पयरसंकमो चेय । तत्तो चुदो वि संतो मणुसेसुववजिय तोमुहुत्तमप्पयरं चैव संकामिय तदो भुजगारमवट्ठिदं वा पडिवण्णो तस्स लद्धो पयदुकस्सकालो दोअंतोमुहुत्तम्भहियतिपलिदोवमेहि सादिरेयतेवडिसागरोवममेत्तो । एत्थ पढमछावट्ठि भमाविय अंतोमुहुत्तावसेसे सम्मामिच्छत्तेण किण्णांतराविजदे ? ण, तहा सम्मत्तं पडिवजमाणस्स भुजगारप्पसंगादो । तं कथं १ सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णस्स समाधान—यह सत्य है, क्योंकि निषेकोंकी प्रधानता स्वीकार करने पर यह इसी प्रकार होता है । परन्तु यहाँ पर इस प्रकारकी विवक्षा नहीं की है, किन्तु कालकी प्रधानता विवक्षित है । शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान — क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्व के अवस्थितसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ऐसा उपदेश पाया जाता है। इससे ज्ञात होता है कि यहाँ पर निषेकोंकी प्रधानता न होकर कालकी प्रधानता है । पुनः वह उपशमसम्यग्दृष्टि जीव वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । तथा पूरे प्रथम छयासठ सागर काल तक अल्पतरसंक्रमका पालन कर उस प्रथम छयासठ सागर में अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर अल्पतरपदके कालमें विरोध न पड़ते हुए अन्तर्मुहूर्तकालतक मिथ्यात्व के द्वारा वेदकसम्यक्त्वको अन्तरित करके सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। तथा द्वितीय छयासठ सागर कालतक परिभ्रमण करके उसके अन्तमें परिणामवश फिर भी मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और द्रव्यलिंगके माहात्म्यसे इकतीस सागरकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ । तथा वहाँ भी शुक्ललेश्या के माहात्म्यसे सत्कर्म से कम स्थितिका ही बन्ध करनेवाले उसके अल्पतरसंक्रम ही होता रहा । फिर वहाँसे च्युत होकर भी मनुष्यों में उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्तं कालतक अल्पतरपदका ही संक्रम करके अनन्तर भुजगार या अवस्थितसंक्रमको प्राप्त हुआ । इसप्रकार अल्पतर संक्रमका दो अन्तर्मुहूर्त और तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागरप्रमाण प्रकृत उत्कृष्ट काल प्राप्त हुआ । शंका—यहाँ पर प्रथम छयासठ सागर कालतक भ्रमण कराके उसमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानके द्वारा अन्तर क्यों नहीं कराया - समाधान — नहीं, क्योंकि उस प्रकार सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाले जीवके भुजगार संक्रमके प्राप्त होने का प्रसंग आता है । शंका- वह कैसे ? समाधान — सम्यग्मिध्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवके मिध्यात्वका परप्रकृतिसंक्रम नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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