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________________ ग० ५८] उत्तरपयडिडिदिसंकमे अप्पाबहुअं ३५१ संकमप्पाबहुअं परूवेदुमुवरिमसुत्तपबंधमाह 8 णिरयगईए सव्वत्थोवो सम्मत्तस्स जहणणहिदिसंकमो। $ ७२०. कदकरणिज्जोववादं पडुच्च एयहिदिमेत्तो लब्भइ ति सव्वत्थोवत्तमेदस्स भणिदं । ॐ जट्ठिदिसंकमो असंखेज्जगुणो। ६ ७२१. सुगमं। * अणंताणुबंधीणं जहएणद्विदिसंकमो असंखेज्जगुणो। ६ ७२२. कुदो ? पलिदोवमासंखभागपमाणत्तादो। * सम्मामिच्छत्तस्स जहएणहिदिसंकमो असंखेज्जगुणो। $ ७२३. कुदो ? उज्वेल्लणाचरिमफालीए जहण्णभावोवलद्धीदो। एत्थतणी पलिदोवमासंखभागायामा चरिमफाली अणंताणुबंधिविसंजोयणाचरिमफालिआयामादो असंखेज गुणा, तत्थ करणपरिणामेहि घादिदावसेसस्स एत्तो थोवत्तसिद्धीए णाइत्तादो । * पुरिसवेदस्स जहएणढिदिसंकमो असंखेज्जगुणो। 5 ७२४. कुदो ? हदसमुप्पत्तिकम्मियासण्णिपच्छायदणेरइयम्मि अंतोमुहुत्ततब्भवत्थम्मि पलिदोवमस्स संखेजदिभागेणूणसागरोवमसहस्सचदुसत्तभाममेत्तपुरिसवेदजहण्णट्ठिदिसंकमावलंबणादो। नरकगतिसे प्रतिबद्ध जघन्य स्थितिसंक्रम अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * नरकगतिमें सम्यक्त्वका जघन्य स्थितिसंक्रम सबसे स्तोक है। ६७२०. कृतकृत्यके उपपादकी अपेक्षा एक स्थितिप्रमाण उपलब्ध होता है, इसलिए इसे सबसे स्तोक कहा है। * उससे यत्स्थितिसंक्रम असंख्यातगुणा है । ६७२१. यह सूत्र सुगम है। * उससे अनन्तानुबन्धियोंका जघन्य स्थितिसंक्रम असंख्यातगुणा है । ६७२२. क्योंकि यह पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। * उससे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम असंख्यातगुणा है। $ ७२३. क्योंकि यहाँपर उद्वेलनाकी अन्तिम फालि जघन्यरूपसे उपलब्ध होती है । पल्यके असंख्यातवें भागरूप आयामवाली यह फालि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी अन्तिम फालिके आयामसे असंख्यातगुणी है, क्योंकि वहाँ पर करणपरिणामोंसे घात करनेसे शेष बचा जघन्य स्थितिसंक्रमका इससे स्तोक सिद्ध होना न्यायप्राप्त है। * पुरुषवेदका जघन्य स्थितिसंक्रम असंख्यातगुणा है। ६७२१. क्योंकि जो हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला असंज्ञी जीव मरकर नारकी हुआ है उसके तद्भवस्थ होनेके अन्तर्मुहूर्त होने पर पल्यके संख्यात भागसे न्यून एक हजार सागरके सात भागोंमेंसे चार भागप्रमाण पुरुषवेदके जघन्य स्थितिसंक्रमका अवलम्बन लिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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