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________________ २६१ गा० ५८ ] हिदिसंकमे भुजगारसामित्त ६५८५. सामित्ताणु० दुविहो गिद्द सो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० भुज०-अवढि०संकमो कस्स ? अण्णद० मिच्छाइट्ठिस्स । अप्प०संकमो कस्स ? अण्णद० सम्माइट्ठिस्स वा मिच्छाइट्ठिस्स वा । अवत्तव्वसंकमो कस्स ? अण्णद० उवसामणादो परिवदमाणयस्स पढमसमयदेवस्स वा । एवं मणुसतिए । णवरि पढमसमयदेवालावो ण कायव्वो। आदेसेण सव्वगइमग्गणावयवेसु ओघभंगो । णवरि अवत्तन्वपदसामित्तं णत्थि । अण्णं च पंचिं०तिरि०अपज०-मणुसअपज. भुज०-अप्प०-अवढि० कस्स ? अण्णदरस्स | आणदादि जाव उवरिमगेवज्जे त्ति अप्पदरपदमोघभंगो। अणुद्दिसादि जाव सव्वढे त्ति अप्पद० कस्स ? अण्णद० । एवं जाव० । ६५८६. कालाणु० दुविहो णिद्देसो--ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० अनन्तर समयमें कम स्थितिका संक्रम करे उसे अल्पतरस्थितिका संक्रामक कहते हैं। जिसके पहले समयके समान ही दूसरे समयमें स्थितिका संक्रम हो उसे अवस्थितसंक्रामक कहते हैं और जो असंक्रामक होनेके बाद पुनः संक्रामक होता है उसे अवक्तव्यस्थितिका संक्रामक कहते हैं। ओघसे इन चारों प्रकारके जीवोंका पाया जाना सम्भव है, इसलिये ओघसे भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिके संक्रामक जीव हैं यह कहा है। मनुष्यत्रिकमें यह व्यवस्था घटित हो जाती है, अतः इनके कथनको ओघके समान कहा है। इनके सिवा गतिमार्गणाके और जितने भेद हैं उनमें स्थितिविभक्तिके समान भुजगार, अल्पतर और अवस्थित ये तीन भेद ही सम्भव हैं तथा आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक एक अल्पतर पद ही सम्भव है। इस जिये इनके कथनको स्थितिविभक्तिके समान कहा है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक यथायोग्य जानना चाहिये। ६५८५. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी भुजगार और अवस्थितस्थितिका संक्रम किसके होता है ? किसी एक मिथ्यादृष्टिके होता है। अल्पतरस्थितिका संक्रम किसके होता है ? किसी एक सम्यग्दृष्टि या मिथ्याष्टिके होता है। अवक्तव्यस्थितिका संक्रम किसके होता है ? जो, उपशामक उपशामनासे च्युत हो रहा है उसके होता है। या जो उपशामक मर कर देव हुआ है उसके प्रथम समयमें होता है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि 'जो उपशामक मर कर प्रथम समयवर्ती देव है उसके होता है। यह आलाप यहाँ नहीं कहना चाहिये । आदेशकी अपेक्षा गतिमार्गणाके सब भेदोंमें ओघके समान जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ अवक्तव्यपदका स्वामित्व नहीं है । इसके सिवा इतनी विशेषता और है कि पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवों में भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिका संक्रम किसके होता है। किसी एकके होता है । आशय यह है कि इन दो मार्गणाओंमें एक मिथ्थादृष्टि गुणस्थान ही होता है, अतः यहाँ मिथ्यादृष्टिके ही तीनों पद घटित करने चाहिए। आनतसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक तकके देवोंमें अल्पतरपदका कथन ओघके समान है। आशय यह है कि इनमें मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों प्रकारके जीव होते हुए भी यहाँ मात्र एक अल्पतर पद ही पाया जाता है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अल्पतरस्थितिका संक्रम किसके होता है । किसीके भी होता है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिये। $ ५८६. कालानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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