SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २६] अट्ठण्हं णिग्गमाणं णामणिदेसो ३७. एत्थ पुवढे एवं पदसंबंधो कायव्यो । तं जहा-पयडीए संकमो दुविहोएकेक्काए पयडीए संकमो पयडीए संकमविही चेदि। कुदो एवं ? संकमपदस्स पयडिसदस्स य आवित्तीए संबंधावलंबणादो । गाहापच्छद्धे सुगमो पदसंबंधो । उभयत्थ वि अवयवत्थो उवरिमचुण्णिसुत्तसंबद्धो त्ति तमपरूविय समुदायत्थमेत्थ वत्तइस्सामो। तं जहा-एदीए गाहाए अट्ठण्णं णिग्गमाणं मज्झे पयडिसंकमो पयडिट्ठाणसंकमो पयडिपडिग्गहो पयडिहाणपडिग्गहो च मुत्तकंठं परूविदा। एदेसिं पडिवक्खा वि चत्तारि णिग्गमा सूचिदा चेव, सव्वेसिं सप्पडिवक्खत्तादो वदिरेगेण विणा अण्णयपरूवणोवायाभावादो च । संपहि एत्थैव णिच्छयजणणट्ठमुवरिमगाहासुत्तावयारो पडि-पयडिहाणसु संकमो असंकमो तहा दुविहो । दुविहो पडिग्गहविही दुविहो अपडिग्गहविही य ॥२६॥ 5 ३८. एदीए गाहाए अट्टण्हं णिग्गमाणं णामणिदेसो कओ होइ । एदिस्से प्रतिग्रहविधि होती है और वह उत्तम प्रतिग्रह और जघन्य प्रतिग्रह ऐसे दो भेद रूप होती है ॥२५॥ ३७. यहां पूर्वार्धमें इस प्रकार पदोंका सम्बन्ध करना चाहिये । यथा-पयडीए संकमो दुविहो-एक्केक्काए पयडीए संकमो पयडीए संकमविही च' इसके अनुसार यह अर्थ हुआ कि प्रकृतिसंक्रम दो प्रकारका है- एकैकप्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिसंक्रमविधि अर्थात् प्रकृतिस्थानसंक्रम। शंका--गाथाके पूर्वार्धसे यह अर्थ किस प्रकार निकलता है ? समाधान-संक्रम पद और प्रकृति शब्द इनकी आवृत्ति करके सम्बन्ध करनेसे उक्त अर्थ निकलता है। गाथाके उत्तरार्धमें पदोंका सम्बन्ध सुगम है। गाथाके पूर्वार्ध और उत्तरार्ध इन दोनों ही स्थलोंमें प्रत्येक पदका अर्थ आगे चूर्णिसूत्र के सम्बन्धसे कहा जायगा, इसलिये यहां उसका निर्देश न करके समुदायार्थको ही बतलाते हैं। यथा-इस गाथामें आठ निर्गमोंमेंसे प्रकृतिसंक्रम, प्रकृति स्थानसंक्रम, प्रकृतिप्रतिग्रह और प्रकृतिस्थानप्रतिग्रह इन चारका मुक्तकण्ठ होकर कथन किया है। तथा इनके प्रतिपक्षभूत जो चार निर्गम हैं उनका भी इस द्वारा सूचन किया है, क्योंकि एक तो जितने भी पदार्थ होते हैं वे सब अपने प्रतिपक्षसहित होते हैं और दूसरे व्यतिरेकके बिना केवल अन्वयका कथन करना भी सम्भव नहीं है। अब इसी बातका निश्चय करनेके लिये आगेकी सूत्रगाथाका अवतार हुआ है-- प्रकृति और प्रकृतिस्थानमें संक्रम और असंक्रम ये दोनों प्रत्येक दो दो प्रकारके हैं। तथा प्रतिग्रहविधि भी दो प्रकारकी है और अप्रतिग्रहविधि भी दो प्रकार की है ।।२६।। ३८. इस गाथा द्वारा आठ निर्गमोंका नामनिर्देश किया गया है। किन्तु इस गाथाके ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy