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________________ २८४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ ___६५७२. णाणाजीवेहि कालो दुविहो जहण्णुकस्सट्ठिदिसंकमविसयभेदेण । तत्थुक्कस्से ताव पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक० हिदिसंका० केवचिरं० १ जह० एयस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अणु० सव्वद्धा। एवं सव्वणिरय-सव्वतिरिक्ख-देवा भवणादि जाव सहस्सार त्ति । णवरि पंचिं०तिरि०अपज० उक्क० द्विदिसं० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। अणु० ओघो। ६५७३. मणुसतिए उक्क० जह० एयस०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अणु० ओघभंगो। मणुसअपज० उक्क० जह० एयसमओ, उक्क० श्रावलि० असंखे०भागो । अणु० जह० अनाहारक मार्गणा तक यथायोग्य स्पर्शनका विचार कर लेना चाहिये । ६५७२. नाना जीवोंकी अपेक्षा काल दो प्रकारका है-जघन्य स्थितिके संक्रामकोंको विषय करनेवाला और उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंको विषय करनेवाला। सर्व प्रथम उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सामान्य देव और भवनवासी देवोंसे लेकर सहस्त्रार कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंका काल ओघके समान है। विशेषार्थ-नाना जीवोंकी अपेक्षा मोहनीयकी स्थितिका बन्ध कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक होता है। इसके बाद एक भी जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक नहीं रहता। इसीसे यहाँ मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण' कहा है, क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिका संक्रम उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अविनाभावी है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं, इससे अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंका काल सर्वदा बतलाया है। सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देव ये मार्गणाएँ ऐसी हैं जिनमें यह ओघप्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, अतः उनके कथनको ओघके समान बतलाया है । किन्तु पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंके उत्कृष्ट कालमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि जो संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके इनमें उत्पन्न होते हैं उन्हींके यह उत्कृष्ट स्थितिका संक्रम पाया जाता है। पर ऐसे जीव पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक ही उत्सन्न हो सकते हैं । इसके बाद नियमसे अन्तर पड़ जाता है । इसलिये पंचेन्द्रिय तियेश्च अपर्याप्तकोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। इनमें जघन्य कालका कथन सुगम है। ५७३. मनुष्यत्रिकमें उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकों का काल ओघके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय कम खुद्दाभव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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