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________________ २५५ गा०५८] हिदिसंकमे उक्कडणामीमांसा इच्छावणा सह सव्वुक्कस्सओ णिक्खेवो होइ । तस्स पमाणणिण्णयमुवरि कस्सामो । एत्तो हेट्ठिमाणं पि द्विदीणमेसो चेव णिक्खेवो । णवरि अइच्छावणा समयुत्तरादिकमेण वड्ढदि जाव उदयावलियबाहिरहिदि ति । संपहि णिव्वाधादविसयणिक्खेवट्ठाणाणं परूवणट्ठमुवरिमसुत्तमोइण्णं * एदिस्से अइच्छावणाए प्रावलियाए असंखेजदिभागमादि कादूण जाव उकस्सो णिक्खेवो त्ति णिरंतरं णिक्खेवहाणाणि । ६५२३. एदिस्से अइच्छावणाए इच्चेदेणाणंतरपरूविदावलियमेत्ताइच्छावणाए परामरसो कदो । तदो एदिस्से अइच्छावणाए जहण्णणिक्खेवो आवलियाए असंखे०भागो होदि त्ति संबंधो कायव्वो । पुव्वणिरुद्धंतोकोडाकोडीमेतद्विदीदो उवरि समयुत्तरादिकमेण बंधवुड्डीए आवलियमेत्ताइच्छावणं तदसंखेजभागमेत्तणिक्खेवं च वड्डाविय बंधमाणस्स णिव्वाघादेण जहण्णाइच्छावणा-णिक्खेवा भवंति, ण हेढदो त्ति उत्तं होइ । एदं जहण्णयं णिक्वट्ठाणं । एवमादि काऊण समयुत्तरकमेण णिरंतरं णिक्खेवट्ठाणवुड्डी वत्तव्या जाब उक्कस्सओ णिक्खेवो त्ति । एत्थ णिरंतरं णिक्खेवट्ठाणाणि ति वयणेण सांतरत्तपडिसेहो कओ, णियाघादे सांतरत्तस्स कारणाणुवलद्धीदो। एवमेदं परूविय संपहि उक्कस्सचाहिये । इस स्थितिका निर्व्याघातविषयक जघन्य अतिस्थापनाके साथ सबसे उत्कृष्ट निक्षेप होता है । उसके प्रमाणका निर्णय आगे करेंगे। इससे नीचेकी स्थितियोंका भी यही निक्षेप होता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि उदयावलिके बाहरकी स्थितिके प्राप्त होने तक इन स्थितियोंकी अतिस्थापना एक एक समय बढ़ती जाती है। अब निर्व्याघातविषयक निक्षेपस्थानोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * इस आवलिप्रमाण अतिस्थापनाके एक आवलिके असंख्यातवें भागसे लेकर उत्कृष्ट निक्षेपके प्राप्त होने तक निरन्तर क्रमसे निक्षेपस्थान होते हैं। ६५२३. सूत्र में जो 'एदिस्से अइच्छावणाए' पद आया है सो उससे जो पूर्वमें एक आवलिप्रमाण अतिस्थापना कह आये हैं उसका परामर्श किया गया है । इसलिये इस अतिस्थापनाका जघन्य निक्षेप एक आवलिका असंख्यातवा भागप्रमाण होता है ऐसा यहाँ पदसम्बन्ध कर लेना चाहिये। पहले जो अन्तःकोडाकोडीप्रमाण स्थिति विवक्षित कर आये हैं उसके ऊपर एक समय अधिक आदिके क्रमसे बन्धकी वृद्धि होने पर एक आवलिप्रमाण अतिस्थापना और उसके असंख्यातवें भागप्रमाण निक्षेपको बढ़ाकर बन्ध करनेवाले जीवके निर्व्याघातविषयक जघन्य अतिस्थापना और जघन्य निक्षेप होते हैं। इससे और कम स्थितिको बढ़ा कर बन्ध करनेवाले जीवके ये निर्व्याघातविषयक जघन्य अतिस्थापना और जघन्य निक्षेप नहीं होते यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यह जघन्य निक्षेपस्थान है। इससे लेकर उत्कृष्ट निक्षेपस्थानके प्राप्त होने तक एक एक समय बढ़ाते हुए निरन्तर क्रमसे निक्षेपस्थानोंकी वृद्धि कहनी चाहिये । यहाँ सूत्र में जो 'रिणरंतरं णिक्खेवट्ठाणाणि' वचन आया है सो उससे निक्षेपस्थानोंके सान्तरपनेका निषेध किया है, क्योंकि निर्व्याघातविषयक उत्कर्षणमें सान्तरपनेका कोई कारण नहीं पाया जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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