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________________ २२६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ ४५७. अट्ठकसाएसु खविदेसु जावाणुपुव्वीसंकमो णाढविजइ ताव पुग्विल्लकालादो संखेजगुणकालम्मि संचिदत्तादो। * वावीससंकामया संखेजगुणा । ६४५८. दंसणमोहक्खवगो मिच्छत्तं खविय जाव सम्मामिच्छत्तं ण खवेइ ताव पुग्विल्लद्धादो संखेजगुणभूदम्मि कालेण एदेसिं संचिदसरूवाणमुवलंभादो । * छुव्वीसाए संकामया असंखेजगुणा । $ ४५९. कुदो ? सम्मत्तमुव्वेल्लिय सम्मामिच्छत्तमुवेल्लेमाणस्स कालो पलिदोवमासंखेजभागमेत्तो। तत्थ संचिदजीवरासिस्स'. पलिदो० असंखे०भागमेत्तस्स पढमसम्मत्तग्गहणपढमसमयवट्टमाणजीवेहि सह गहणादो । * एकवीसाए संकामया असंखेजगुणा। ४६०. कुदो ? वेसागरोवमकालसंचिदखइयसम्माइद्विरासिस्स पहाणभावेण इह ग्गणादो। को गुणगारो ? आवलि० असंखे०भागो । * तेवीसाए संकामया असंखजगुणा । $ ४६१. कुदो ? छावट्टिसागरोवमकालभंतरसंचिदत्तादो। जइ एवं संखेजगुणत्तं ६४५७. क्योंकि आठ कषायोंका क्षय होने पर जब तक आनुपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ नहीं किया जाता है तब तक पूर्वोक्त स्थानके कालसे यह काल संख्यातगुणा हो जाता है, इसलिये इस कालमें संचित हुए जीव भी संख्यातगणे होते हैं। * उनसे बाईस प्रकृतियोंके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। ६४५८. क्योंकि जो दर्शनमोहनीयका क्षपक जीव मिथ्यात्वका क्षय करके जब तक सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय नहीं करता है तब तक पूर्वोक्त स्थानके कालसे इस स्थानका काल संख्यातगुणा होता है, इसलिये इस काल द्वारा जो इन जीवोंका संचय होता है वह संख्यातगुणा उपलब्ध होता है। * उनसे छब्बीस प्रकृतियोंके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। ६४५६. क्योंकि सम्यक्त्वकी उद्वेलना करके सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेवाले जीवका काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिये उस कालके भीतर पल्यकी असंख्यातवें भागप्रमाण जीवराशिका संचय पाया जाता है उसका यहाँ पर प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करके उसके प्रथम समयमें विद्यमान जीवराशिके साथ ग्रहण किया है। * उनसे इक्कीस प्रकृतियोंके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। ६४६०. क्योंकि यहाँ पर दो सागर कालके भीतर संचित हुई क्षायिकसम्यग्दृष्टि राशिका प्रधानरूपसे ग्रहण किया है । गुणकार क्या है ? गुणकार श्रावलिका असंख्यातवाँ भाग है। * उनसे तेईस प्रकृतियोंके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। ६ ४६१. क्योंकि इनका छयासठ सागर कालके भीतर संचय होता है । १. पा प्रतौ संचिदा जीवरासिस्स इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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