________________
गा० ५८] पयडिसंकमट्ठाणाणं सण्णियासो
२२१ वासपुधत्तमेत्तमंतर होइ, तदारोहणविरहकालस्स तेत्तियमेत्तस्स णिव्वाहमुवलद्धीदो । सुत्ते संखेजवस्सग्गहणेण वासपुधत्तमेत्तकालविसेसपडिवत्ती। कुदो ? अविरुद्धाइरियवक्खाणादो।
8 जेसिमविरहिदकालो तेसिं पत्थि अंतरं । ४३६. सुगममेदं सुत्तं ।।
एवमोघो समत्तो । ४३७. आदेसेण णेरइयसव्वपदाणं णत्थि अंतरं, णिरंतरं। एवं पढमपुढवि-तिरिक्खपंचिंदियतिरिक्खर-पंचिं०तिरि०अपज्ज०-देवगदिदेवा सोहम्मादि जाव सबट्ठा ति । विदियादि सत्तमा त्ति एवं चेव । णवरि २१ जह० एयसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । एवं जोणिणी-भवण-वाण-जोदिसि० । मणुसतिए ओघं। णवरि मणुसिणी० वासपुधत्तं । मणुसअपज्ज. सव्वपदसंका० जह० एयसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । एवं जाव० ।
* सरिणयासो पत्थि । 5 ४३८. कुदो ? एकम्मि संकमट्ठाणे णिरुद्धे सेससंकमट्ठाणाणं तत्थासंभवादो ।
४३९. भावो सव्वत्थ ओदइओ भावो । काल वर्षपृथक्त्व है, क्योंकि उपशमश्रेणिका विरहकाल निर्वाधरीतिसे इतना हा पाया जाता है। अर्थात् अधिकसे अधिक इतने कालतक जीव उपशमश्रेणिपर नहीं चढ़ते हैं। सूत्रमें जो 'संखेज्जवस्स' पदका ग्रहण किया है सो इससे वर्षपृथक्त्वप्रमाण कालविशेष का ज्ञान होता है, क्योंकि अन्य आचार्योंने उपशमश्रेणिका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व ही बतलाया है, अतः यह व्याख्यान उसके अविरुद्ध है।
* जिनका विरहकाल नहीं पाया जाता उन स्थानोंका अन्तर नहीं है । ६४३६. यह सूत्र सुगम है।।
इस प्रकार ओघप्ररूपणा समाप्त हुई। ६४३७. आदेशकी अपेक्षा नारकियों में सब पदोंका अन्तर नहीं है, वे वहाँ निरन्तर पाये जाते हैं। इसी प्रकार प्रथम पृथिवीके नारकी, तिर्यञ्च, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चद्विक, पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त, देवगतिमें देव और सौधर्म कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिये। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक भी इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ पर २१ प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार योनिनी तिर्यञ्च, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिये । मनुष्यत्रिकमें अन्तर ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यनीके वर्षपृथक्त्व अन्तर कहना चहिये। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब पदोंके संक्रामकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये।
संक्रमस्थानोंका सन्निकर्ष नहीं है। ___४३८. क्योंकि एक संक्रमस्थानके रहते हुए वहाँ पर शेष संक्रमस्थानोंका पाया जाना सम्भव नहीं है।
६४३६. भाव सर्वत्र औदायिक है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org