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________________ २१२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ $ ४१६. संपहि आदेसपरूवणट्ठमुच्चारणं वत्तइस्सामो । आदेसेण णेरइयएसु पंचण्हं द्राणाणं संका० णियमा अस्थि । एवं पढमपुढवि-तिरिक्ख३-देवा सोहम्मादि जाव १६६८३ x २-३६३६६ नौसंक्रमस्थानके प्रत्येक व संयोगी सब भंग १६६८३४३=५६०४६ ध्रुवभंग सहित पूर्वोक्त २२ से ६ संक्रमस्थान तकके सब भंग ५६०४६ x २=११८०१८ आठ संक्रमस्थानके प्रत्येक व संयोगी सब भंग ५६०४६४३१७७१४७ ध्रुवभंग सहित पूर्वोक्त २२ से संक्रमस्थान तकके सब भंग १७७१४७४ २=५४२६४ सात संक्रमस्थानके प्रत्येक व संयोगी सब भंग १७७१४७४ ३=५३१४४१ ध्रुवभंग सहित पूर्वोक्त २२ से ७ संक्रमस्थान तकके सब भंग ५३१४४१४२१०६२८८२ छह संक्रमस्थानके प्रत्येक व संयोगी सब भंग ५३१४४१४३=१५६४३२३ ध्रवभंग सहित पूर्वोक्त २२ से ६ संक्रमस्थान तकके सब भंग १५६४३२३ ४२=३१८८६४६ पाँच संक्रमस्थानके प्रत्येक व संयोगी सव भंग १५६४३२३४३ = ४७८२६६६ ध्रुवभंग सहित पूर्वोक्त २२ से ५ संक्रमस्थान तकके सब भंग ४७८२६६६४२ =९५६५९३८ चार संक्रमस्थानके प्रत्येक व संयोगी सब भंग ४७८२६६६४३-१४३४८६०७ ध्रुव भंगसहित पूर्वोक्त २२से ४ संक्रमस्थान तककेसब भंग १४३४८६०७४२ = २८६६७८१४ तीन संक्रमस्थानके प्रत्येक व संयोगी सब भंग १४३४८६०७४३= ४३०४६७२१ ध्रुव भंगसहित पूर्वोक्त २२ से ३ संक्रमस्थान तकके सब भंग ४३०४६७२१४२ = ८६०९३४४२ दो संक्रमस्थानके प्रत्येक व संयोगी सब भंग ४३०४६७२१४३ = १२६१४०९६३ ध्रुव भंगसहित पूर्वोक्त २२ से २,संक्रमस्थान तकके सब भंग १२६१४०१६३४२ = २५८२८०३२६ एक संक्रमस्थानके प्रत्येक व संयोगी सब भंग १२६१४०१६३४३= ३८७४२०४८६ ध्रुव भगसहित पूर्वोक्त २२से १ संक्रमस्थान तकके सब भंग सूचना-२२ संक्रमस्थानको प्रथम मानकर ये उत्तरोत्तर भंग लाये गये हैं। अतः आगे जो २० आदि एक एक संक्रमस्थानके भंग बतलाये गये हैं उनमें उस उस स्थानके प्रत्येक भंग और उस स्थान तकके सब स्थानोंके द्विसंयोगी आदि भंग सम्मिलित हैं। ये भंग विवक्षित स्थानसे पीछेके सब स्थानोंके भंगोंको दोसे गुणा करने पर उत्पन्न होते हैं। तथा इन भंगोंमें पीछे पीछे के स्थानोंके भंग मिला देने पर वहाँ तक सब भंग होते हैं। ये भंग विवक्षित स्थानसे पीछेके सब स्थानोंके भंगोंको तीनसे गुणा करने पर उत्पन्न होते हैं । पश्चादानुपूर्वी या पत्रतत्रानुपूर्वी के क्रमसे भी ये भंग लाये जा सकते हैं। इस प्रकार ओघ प्ररूपणा समाप्त हुई। ६४१६. अब आदेशका कथन करनेके लिए उच्चारणाको बतलाते हैं। आदेशसे नारकियोंमें पाँच संक्रमस्थानोंके संक्रामक जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार प्रथम पृथिवी, तिर्यचत्रिक, देव और सौधर्म कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। दूसरी पृथिवीसे लेकर ___ Jain Education International .. . . . .For Private &Personal-Use Only. - www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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