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________________ २०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ सामणाए लद्धप्पसरूवस्स पयदसंकमट्ठाणस्स दुविहकोहोवसामणाए अंतरपारंभो वत्तव्यो। तदो हेट्ठा ओदरिय पुणो वि सव्वलहुं चढिय पुरिसवेदे उवसामिदे लद्धमंतरं कायव्वं । एसो चेव कमो एकारससंकमस्स वि । णवरि दुविहकोहोवसामणाए लद्धप्पसरूवस्सेदस्स कोहसंजलणोवसामणाणंतरमंतरिदस्स पुणो ओदरमाणावत्थाए तिविहमाणोकड्डणेण लद्धमंतरं कायव्वं । एवं दससंकामयस्स वि। णवरि कोहसंजलणोवसामणाए लद्धप्पलाहस्सेदस्स दुविहमाणोवसामणेणंतरं कादृणुवरि चढिय पुणो हेट्ठा ओदरिय पुणो वि सव्वलहुमुवरिं चढिदस्स कोहसंजलणोवसामणाणंतरं लद्धमंतरं कायव्वं । एवमट्ठण्हं संकामयस्स । णवरि दुविहमाणोवसामणाए समुवलद्धसंकमस्सेदस्स माणसंजलणोवसामणेणंतरस्सादि कादण पुणो ओदरमाणस्स तिविहमायोकड्डणाए अंतरपरिसमत्ती कायव्वा । एवं सत्तसंकामयस्स वि वत्तव्वं । णवरि माणसंजलणोवसामणाणंतरमुवलद्धसरूवस्सेदस्स दुविहमायोवसामणाए अंतरपारंभं कादृणुवरिं चढिय हेट्ठा ओदरिय पुणो वि सव्वलहुमुवरिं चढिदस्स सगुद्देसे लद्धमंतरं कायव्वं । एवं चेव पंचसंकामयजहण्णंतरपरूवणा वि । णवरि दुविहमायोवसामणाणंतरमुवजादसरुवस्सेदस्स मायासंजलणोवसामणाणंतरमंतरिदस्स समयाविरोहेण लद्धमंतरं कायव्वं । एवं चेव चउण्हं संकामयस्स वि वत्तव्वं । पुरुषवेदका उपशम हो जाने पर जिसने तेरह प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त कर लिया है उसके दो प्रकारके क्रोधका उपशम हो जाने पर प्रकृत संक्रमस्थानके अन्तरके प्रारम्भ होनेका कथन करना चाहिये । फिर इस जीवको नीचे उतारकर और अतिशीघ्र फिरसे चढ़ाकर पुरुषवेदका उपशम कर लेनेपर प्रकृत स्थानका अन्तर प्राप्त करना चाहिये। ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थानके अन्तरका भी इसी क्रमसे कथन करना चाहिये । किन्तु दो प्रकारके क्रोधका उपशम होने पर इस स्थानको प्राप्त कराके फिर क्रोध संज्वजनका उपशम होनेके बाद इस स्थानका अन्तर प्राप्त करे । फिर उपशमश्रेणिसे उतरते समय तीन प्रकारके मानका अपकर्षण कराके इस स्थानका अन्तर प्राप्त करना चाहिये । दिस प्रकृतिक संक्रमस्थानका अन्तर भी इसी प्रकार होता है । किन्तु क्रोध संज्वलनका उपशम होने पर इस स्थानको प्राप्त करके फिर दो प्रकारके मानका उपशम होनेके बाद इस स्थानका अन्तर प्राप्त करे। फिर ऊपर चढ़कर और नीचे उतरकर फिरसे अतिशीघ्र ऊपर चढ़े और क्रोधसंज्वलनका उपशम करके अन्तर प्राप्त करे। इसी प्रकार आठ प्रकृतियोंके संक्रामकका भी अन्तर है। किन्तु दो प्रकारके मानका उपशम हो जाने पर इस स्थानको प्राप्त करके मानसंज्वलनका उपशम करनेके बाद अन्तरका प्रारम्भ किया। फिर उतरते समय तीन प्रकारकी मायाका अपकर्षण करके अन्तरकी समाप्ति की। इसी प्रकार सात प्रकृतियोंके संक्रामकके अन्तरका कथन करना चाहिये। किन्तु मानसंज्वलनका उपशम हो जाने पर इस स्थानको प्राप्त करके फिर दो प्रकारकी मायाका उपशम हो जाने पर अन्तरका प्रारम्भ किया। फिर ऊपर चढ़कर और नीचे उतरकर फिरसे अतिशीघ्र ऊपर चढ़े और अपने स्थानमें पहुंचकर अन्तर प्राप्त करे। पाँच प्रकृतियोंके संक्रामकके जघन्य अन्तरका कथन भी इसी प्रकार करना चाहिये। किन्तु दो प्रकारकी मायाका उपशम होनेके बाद इस स्थानको प्राप्त करके फिर माया संज्वलनका उपशम होनेके बाद इस स्थानका अन्तर करे और यथाविधि विवक्षित स्थान पर आकर अन्तरको प्राप्त करे। इसी प्रकार चार प्रकृतियोंके संक्रामकका भी अन्तर कहना चाहिये। किन्तु माया संज्वलनका उपशम हो जाने For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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