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________________ गा० २३ ] संक्रमस्स उवक्कमभेदणिरूवणं * संकमस्स पंचविहो उवक्कमो-आणुपुव्वी णामं पमाणं वत्तव्वदा अत्याहियारो चेदि । $ १४. पयदत्थाहियारस्स सोदाराणं बुद्धिविसयपच्चासण्णभावो जेण कीरदे सो उवक्कमो णाम । वुण सो पंचविहो आणुपुवीआदिभेएण । तत्थाणुपुव्वी तिविहापुवाणुपुन्वी पच्छाणुपुव्वी जत्थतत्थाणुपुत्री चेदि । तत्थ पुव्वाणुपुव्वीए कसायपाहुडस्स पण्हारसण्हमत्थाहियाराणं मज्झे पंचमो एसो अत्थाहियारो। पच्छाणुपुवीए एकारसमो। जत्थतत्थाणुपुवीए पढमो विदिओ तदिओ एवं जाव पण्हारसमो वा त्ति वत्तव्वं । णाममेदस्स संकमो त्ति गोण्णपदं, पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेससंकमसरूववण्णणादो। पमाणमेत्थ अक्खर-पद-संघाय-पडिवत्ति-अणियोगद्दारेहि संखेनं, अस्थदो अणंतमिदि वत्तव्यं । वत्तव्वदा एदस्स ससमयो। एत्थ अत्थाहियारो चउन्विहो थप्पो, उवरि सुत्तयारेण समुहेणेव परूविस्समाणत्तादो । एवमुक्कमो गओ। * संक्रमका उपक्रम पाँच प्रकारका है—आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण,वक्तव्यता और अर्थाधिकार । १४. जिससे प्रकृत अर्थाधिकार श्रोताओंके बुद्धिविषय होनेके अनुकूल होता है वह उपक्रम कहलाता है । किन्तु वह आनुपूर्वी आदिके भेदसे पांच प्रकारका है। उनमेंसे आनुपूर्वीके तीन भेद हैं-पूर्वानुपूर्वी, पश्चादानुपूर्वी और यत्रतत्रानुपूर्वी। उनमेंसे पूर्वानुपूर्वीकी अपेक्षा कषायप्राभृतके पन्द्रह अर्थाधिकारोंमेंसे यह पांचवां अर्थाधिकार है। पश्चादानुपूर्वीकी अपेक्षा ग्यारहवाँ अर्थाधिकार है और यत्रतत्रानुपूर्वीकी अपेक्षा पहला, दूसरा, तीसरा इसी प्रकार क्रमसे जाकर पन्द्रहवां अर्थाधिकार है ऐसा यहां कहना चाहिये । इसका संक्रम यह नाम गौण्यपद है, क्योंकि इसमें प्रकृतिसंक्रम, स्थितिसंक्रम, अनुभागसंक्रम और प्रदेशसंक्रमके स्वरूपका वर्णन किया गया है। इसका प्रमाण अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोगद्वारोंकी अपेक्षा संख्यात है तथा अर्थकी अपेक्षा अनन्त है ऐसा यहां कहना चाहिये। वक्तव्यताके तीन भेद हैं। उनमेंसे इसकी स्वसमय वक्तव्यता है । प्रकृत अर्थाधिकारके चार भेद हैं जिनका कथन स्थगित करते हैं, क्योंकि आगे सूत्रकार स्वमुखसे ही उनका कथन करनेवाले हैं। इस प्रकार उपक्रमका कथन समाप्त हुआ। विशेषार्थ-उप उपसर्ग पूर्वक क्रम् धातुसे उपक्रम शब्द बना है। इसका अर्थ है समीपमें जाना । उपक्रमके जो आनुपूर्वी आदि पांच भेद बतलाये हैं उनको भले प्रकारसे जान लेनेपर श्रोताको प्रकृत अधिकारका संक्षेपतः पूरा ज्ञान हो जाता है । आनुपूर्वीसे तो वह यह जान लेता है कि यह प्रारम्भसे गिननेपर कितनेवां, अन्तसे गिननेपर कितनेवां और जहा कहींसे गिननेपर कितनेवां अधिकार है। नामसे प्रकृत प्रकरणका नाम और इसका नामके दस या छह भेदोंमेंसे किसमें अन्तर्भाव होता है यह जान लेता है। प्रमाणसे प्रकृत प्रकरणके परिमाणका ज्ञान हो जाता है। वक्तव्यतासे यह व्याख्यान स्वसमय या परसमय इनमेंसे किस अपेक्षासे किया जा रहा है यह ज्ञान हो जाता है। तथा अर्थाधिकारसे प्रकृत प्रकरणके अवान्तर अधिकारोंका ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार जिस अधिकारका व्याख्यान करनेवाले होते हैं उसका आनुपूर्वी आदि द्वारा पूरा ज्ञान हो जाता है, इसलिये इन सबको उपक्रम कहते हैं। यहां पर संक्रम प्रकरणका वर्णन करनेवाले हैं, इसलिये आनुपूर्वी आदि द्वारा उसका उपक्रम बतलाया गया है ऐसा जानना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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