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________________ गा० ५७-५८ ] पयडिसंकमट्ठाणाणं एयजीवेण कालो १८१ तिणि हाणाणि कस्स ? अण्णदरस्स । एवं जाव । ३५४. एवं सामित्तं समाणिय संपहि कालाणियोगद्दारपरूवणट्ठमुत्तरमुत्तावयारो कीरदे • एयजीवेण कालो। । ३५५. सामित्तपरूवणाणंतरमेयजीवविसओ कालो परूवेयव्वो त्ति पइजासुत्तमेदं । ॐ सत्तवीसाए संकामो केवचिरं कालादो होइ ? $ ३५६. पुच्छासुत्तमेदं सुगमं । * जहणणेण अंतोमुहुत्तं । ६ ३५७. एसो जहण्णकालो मिच्छाइट्ठिस्स पणुवीससंकामयस्स उवसमसम्मत्तं घेत्तूण विदियसमयप्पहुडि सत्तावीससंकामयभावेण जहण्णमंतोमुहुत्तमेत्तकालमच्छिय पुणो उवसमसम्मत्तकालभंतरे चेय अणंताणुबंधी विसंजोइय तेवीससंकामयत्तेण परिणयस्स समुवलंब्भदे । अथवा सम्ममिच्छाइट्ठिस्स सम्मत्तं मिच्छत्तं वा गंतूण तत्थ सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो परिणामपच्चएण सम्मामिच्छत्तमुवगयस्स एसो कालो गहियव्यो । संपहि तदुक्कस्सकालपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणइ ॐ उक्कस्सेण वेछावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि तिपलिदोवमस्स अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । 5 ३५४. इस प्रकार स्वामित्वको समाप्त करके अब कालानुयोगद्वारका कथन करने के लिए आगेके सूत्रों का अवतार करते हैं * एक जीवकी अपेक्षा कालका अधिकार है। 5 ३५५. स्वामित्वविषयक प्ररूपणाके बाद एक जीवविषयक कालका कथन करना चाहिये इस प्रकार यह प्रतिज्ञासूत्र है। * सत्ताईस प्रकृतिक संक्रामकका कितना काल है ? ६ ३५६. यह पृच्छासूत्र सुगम है। * जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । ६ ३५७. जो पच्चीस प्रकृतियोंका संक्रम करनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके दूसरे समयसे लेकर सत्ताईस प्रकृतियोंका संक्रम करता हुआ जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालतक वहाँ रहकर पुनः उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर ही अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थानको प्राप्त होजाता है उसके सत्ताईस प्रकृतिक संक्रमस्थानका यह जवन्य काल प्राप्त होता है । अथवा जो सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्व या मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और वहाँ सबसे जघन्य अन्तर्मुहूते कालतक रहकर फिर परिणामवश सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होता है उसके यह जघन्य काल ग्रहण करना चाहिए। अब इस संक्रमस्थानके उत्कृष्ट कालका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागसे अधिक दो छयासठ सागर१. श्रा०बी०प्रत्योः पलिदोवमस्स, ता०प्रतौ [ ति ] पलिदोवमस्स इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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