SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० ३७ ] पयडिसकमट्ठाणाणं सामित्तं १७९ णिरुद्धेयसंकमट्ठाणम्मि उक्कस्साणुक्कस्सादिपदभेदाणमसंभवादो। $ ३५१. सादि-अणादि-धुव-अर्द्धवाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण पणु० संकाम० किं सादि०४ ? सादि० अणादि० धुवा अद्भुवा वा । सेसट्ठाणसंकामया सव्वे सादि-अधुवा । आदेसेण णेरइय० सव्यसंकमट्ठाणाणं संकामया सादि-अदुवा । एवं जाव अणाहारि त्ति । * एत्तो पदाणुमाणियं सामित्तं णेयव्यं । $ ३५२. एदस्स सामित्तपरूवणाबीजपदभूदसुत्तस्स अत्थविवरणं कस्सामो । जघन्य संक्रम और अजघन्य संक्रम ये अनुयोगद्वार सम्भव नहीं हैं, क्योंकि विवक्षित एक संक्रमस्थानमें उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट इत्यादि भेद सम्भव नहीं हैं। विशेषार्थ तात्पर्य यह है कि जिस संक्रमस्थानमें जितनी प्रकृतियाँ परिगणित की गई हैं उसमें उतनी ही प्रकृतियाँ होती हैं, इसलिए प्रकृतिसंक्रमस्थानोंमें इन भेदोंका निषेध किया है। ६३५१. सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रधानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघसे पच्चीस प्रकृतिक स्थानके संक्रामक जीव क्या सादि होते हैं, क्या अनादि होते हैं, क्या ध्रुव होते हैं या क्या अध्रुव होते हैं ? सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव चारों प्रकारके होते हैं। शेष स्थानोंके संक्रामक सब जीव सादि और अध्रुव होते हैं। आदेशसे नारकियों में सब संक्रमस्थानोंके संक्रामक जीव सादि और अध्रुव होते हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । विशेषार्थ-बात यह है कि पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थान अनादि व सादि दोनों प्रकारके मिथ्यादृष्टियोंके व भव्य, और अभव्य इन दोनों के सम्भव है, अतः यहाँ सादि आदि चारों विकल्प बन जाते हैं । किन्तु शेष स्थानोंकी यह बात नहीं है, क्योंकि वे सब स्थान कादाचित्क हैं, अतः उनमें सादि और अध्रुव से ही दो विकल्प घटित होते हैं। इसी प्रकार सब मार्गणाओंमें उक्त प्रकारसे सादि आदि प्ररूपणा लगा लेना चाहिये । इनका सरलतासे ज्ञान होनेके लिये कोष्ठक दे रहे हैं मार्गणा । २५ प्र० । शेष स्थान मिथ्या० | सादि आदि ४ | सादि व अध्रुप अनच. भव्य ध्रुवके बिना ३ अभव्य० अनादि व ध्रुव जहाँ जो सम्भव शेष | सादि व अध्रुव | हैं वे सादि व अध्रुव * अब आगे आनुपूर्वी आदि अर्थपदोंके द्वारा अनुमान किये गये स्वामित्वको जानना चाहिए। ६ ३५२. अब स्वामित्व प्ररूपणाके बीजभूत इस सूत्रका व्याख्यान करते हैं। यथा-इससे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy