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________________ गा• ४३-४५ ] संतकम्मट्ठाणेसु संकमट्ठाणपरूवणा १६७ दुविहकोह-कोहसंजलण-दुविहमाण-( माण) रंजलण-दुविहमाय-मायसंजलणाणमुवसमेण जहाकमेगूणवीसादिसंकमट्ठाणाणमिगिवीससंतकम्माहाराणमुवलंभादो । पुणो खवगेण अट्ठकसायखवणवावदेण समयूणावलियमेत्तगोवुच्छावसेसे कदे तेरससंकमट्ठाणमिगिवीससंतकमसंबंधेण समुवलब्भइ । एवं सव्वसमासेण तेरससंकमट्ठाणाणि इगिवीससंतकम्मपडिबद्धाणि भवंति १३ । ___ ३२७, पुणो अट्ठकसाएसु णिल्लेविदेसु तेरससंतकम्मसंबद्धं तेरसपयडिसंकमट्ठाणमुप्पजदि १। तेणेव समाणिदंतरकरणेण आणुपुव्वीसंकमे कदे बारससंकमट्ठाणं तेरससंतकम्मसहगयमुप्पञ्जदि २। एवमेदाणि दोण्णि तेरससंतकम्मियस्स संकमट्ठाणाणि। ३२८. एदेणेव गqसयवेदे खविदे बारससंतकम्मं होऊणेकारससंकमट्ठाणमुवलब्भदे । इथिवेदे खविदे एकारससंतकम्मं होऊण दससंकमो लब्भदे । छण्णोकसायक्खवणाणंतरं पंचसंतकम्मं होऊण चदुण्हं संकमो जायदे। पुरिसवेदे णवकबंधे खविदे चत्तारि संतकम्माणि होऊण तिण्हं संकमो जायदे । कोहसंजलणे' खविदे तिण्णि संतकम्माणि दोण्हं संकमो माणसंजलणे खविदे दोणि संतकम्माणि एगपयडिसंकमो च जायदे। एवं संतकम्मट्ठाणेसु संकमट्ठाणाणमणुगमो कदो। नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, छह नोकषाय, पुरुषवेद, दो प्रकारका क्र.ध, क्रोधसंज्वलन, दो प्रकारका मान मानसंज्वलन, दा प्रकारकी माया और मायासंज्वलन इन प्रकृतियोंका उपशम होनेसे क्रमसे इक्कीस प्रकृतिक सत्कर्मस्थानके आधारसे उन्नीस प्रकृतिक श्रादि संक्रमस्थान उपलब्ध होते हैं। फिर आठ कषायोंकी क्षपणा करनेवाले क्षपकके एक समय कम एक आवलिप्रमाण गोपुच्छाके शेष रहने पर इक्कीस प्रकृतिक सत्कर्मस्थानके सम्बन्धसे तेरह प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार इक्कीस प्रकृतिक सत्कर्मस्थानसे सम्बन्ध रखनेवाले कुल तेरह संक्रमस्थान होते हैं १३ । ६३२७. पुनः आठ कषायोंका क्षय हो जाने पर तेरह प्रकृतिक सत्कर्मसे सम्बन्ध रखनेवाला तेरह प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है १। फिर इसी जीवके अन्तरकरण करनेके बाद आनुपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ कर देने पर तेरह प्रकृतिक सत्कर्मसे सम्बन्ध रखनेवाला बारह प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है । २। इस प्रकार तेरह प्रकृतिक सत्कर्मवालेके ये दो संक्रमस्थान होते हैं। ३२८. पुनः इसी जीवके द्वारा नपुसकवेदका क्षय कर देने पर बारह प्रकृतिक सत्कर्मके साथ ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थान उपलब्ध होता है । स्त्रीवेदका क्षय कर देने पर ग्यारह प्रकृतिक सत्कर्म होकर दस प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त होता है। छह नोकषायोंका क्षय हो जाने पर पाँच प्रकृतिक सत्कर्म होकर चार प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त होता है। पुरुपवेदके नवकबन्धका क्षय हो जाने पर चार प्रकृतिक सत्कर्म होकर तीन प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त होता है। क्रोधसंज्वलनका क्षय हो जाने पर तीन प्रकृतिक सत्कर्मके साथ दो प्रकृतिक संक्रमस्थान और मानसंज्वलनका क्षय हो जाने पर दो प्रकृतिक सत्कर्मके साथ एक प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार सत्कर्मस्थानोंमें संक्रमस्थानोंका विचार किया। १. ता. प्रतौ लोभसंजलणे इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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