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________________ गा० २३ ] बंधाणियोगद्दारभेदणिरूवर्ण ८. द्विदि-अणुभागे ति गाहापुव्वद्धपडिबद्धे सुत्तपदे हिदिबंधो अणुभागबंधो च णिलीणो ति गहेयव्वो, संगहिदसारस्सेदस्स पज्जवट्टियपरूवणाए जोणिभावेणावट्ठाणादो। * जहएणमुक्कस्सं ति पदेसबंधो। ९. जहण्णमुक्कस्सं ति गाहापुव्वद्धपडिबद्ध बीजपदे पदेसबंधो संगहिओ त्ति गहेयव्वं, किं जहण्णमुक्कस्सं वा पदेसग्गेण बंधइ त्ति सुत्तत्थसंबंधावलंबणादो। एवमेत्तिएण पबंधेण गाहापुव्वद्धे पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसबंधाणं पडिबद्धत्तं परूविय संपहि गाहापच्छद्धविहाणट्ठमाह ॐ संकामेदि कदि वा त्ति पयडिसंकमो च द्विदिसंकमो च अणुभागसंकमो च गहेयव्वो। १०. कदि पयडीओ संकामेइ, कदि वा ट्ठिदि-अणुभाए संकामेइ ति गाहापुव्वद्धादो अहियारवसेणाहिसंबंधादो तिण्हमेदेसिमेत्थ संगहो ण विरुज्झदे। ॐ गुणहीणं वा गुणविसिहं ति पदेससंकमो सूचित्रो । ९ ११. गणहीणं वा गुणविसिलु ति एदेण बीजपदेण पदेससंकमो सूचिओ. किं गुणहीणं पदेसग्गं संकामेइ, किं वा गुणविसिट्ठमिदि सुत्तत्थसंबंधावलंबणादो। ८. गाथाके पूर्वार्धमें आये हुए 'ढिदि-अणुभागे' इस सूत्रपदमें स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध अन्तर्भत हैं ऐसा यहाँ जानना चाहिये, क्योंकि सारभूत विषयका संग्रह करनेवाला यह पद पर्यायार्थिक प्रपरूणाके योनिरूपसे अवस्थित है। * 'जहण्णमुक्कस्सं इस पदसे प्रदेशबन्धको सूचित किया गया है। ६. गाथाके पूर्वार्धमें आये हुए 'जहण्णमुक्कस्सं' इस बीजपदमें प्रदेशबन्ध संग्रहीत है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि यहाँ पर प्रदेशरूपसे जघन्य या उत्कृष्ट कितने प्रदेशोंको बाँधता है। इस प्रकार सूत्रार्थके सम्बन्धका अबलम्बन लिया गया है । इस प्रकार इतने प्रबन्ध दारा गाथाके पर्धिमें प्रकृतिबन्ध, स्थितबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका उल्लेख किया यह बतलाकर अब गाथाके उत्तरार्धका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * 'संकामेदि कदि वा' इस पदसे प्रकृतिसंक्रम, स्थितिसंक्रम और अनुभागसंक्रमको ग्रहण करना चाहिए । १०. कितनी प्रकृतियोंका संक्रमण करता है या कितनी स्थिति और अनुभागका संक्रमण करता है इस प्रकार यहाँ प्रकरणवश गाथाके पूर्वार्धका सम्बन्ध हो जानेसे प्रकृति, स्थिति और अनुभाग इन तीनोंका संग्रह यहाँ पर विरोधको प्राप्त नहीं होता। * 'गुणहीणं वा गुणविसिटुं' इस पदसे प्रदेशसंक्रमको सूचित किया गया है। $ ११. गाथासूत्र में आये हुए 'गुणहीणं वा गुण विसिटुं' इस बीजपदसे प्रदेशसंक्रमका सूचन होता है, क्योंकि यहाँपर 'कितने गुणे हीन प्रदेशोंका संक्रमण करता है या कितने गणे अधिक प्रदेशोंका संक्रमण करता है। इस प्रकार गाथा सूत्रके अर्थके सम्बन्धका अवलम्बन लिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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