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________________ गा० ४५ ] मग्गणट्ठाणेसु संकमट्ठाणपरूवणा પણ सामणाए परिणदो अवगदवेदत्तमुवणमिय चोदसण्हं संकामगो होइ १ । पुणो पुरिसवेदणवकबंधमुवसामिय तेरसण्हं संकामयत्त मुवगओ २ दुविहकोहोवसामणाए एकारससंकामयत्तं पडिवण्णो ३ कोहसंजलणोवसामणवावारेण दसण्हं संकामयत्तमणुपालिय ४ दुविहमाणोवसामणाए परिणमिय अट्ठण्हं संकामयभावमुवगओ५ माणसंजलणोवसामणाए सत्तण्हं संकामओ होऊण ६ दुविहमायमुवसामिय पंचण्हं संक्रमस्स सामिओ जादो ७ । पुणो मायासंजलणोवसामणाणंतरं चउण्हं संकामयत्तमुवणमिय ८ दुविहलोहोवसामणावावदो दोण्हं संकामओ जायदे ९। एवमेदाणि णवंसंकमट्ठाणाणि पुरिसवेदोदइल्ल - चउवीससंतकम्मियमस्सियूणावगयवेदट्ठाणम्मि लब्भंति । ६३०५. संपहि इगिवीससंतकम्मिओवसामगस्स पुरिसवेदोदएण सेढिं चढिदस्स आणुपुव्वीसंकमाणंतरमुवसामिदणqसय-इत्थिवेद-छण्णोकसायस्स बारससंकमट्ठाणमवगदवेदपडिबद्धमुप्पजइ । पुणो दुविहकोह-दुविहमाण-दुविहमायापयडीणमुवसामणपज्जाएण परिणदस्स जहाकम णवण्हं छण्णं तिण्हं संकमट्ठाणाणि समुप्पज्जति । एवमेदाणि चत्तारि चेव संकमट्ठाणाणि एत्थ लभंति, सेसाणं पुणरुत्तभावदंसणादो। एदाणि पुव्विल्लेहि सह मेलाविदाणि तेरस संकमट्ठाणाणि होति । पुणो तस्सेव णउंसयवेदोदएण सेढिं चढिदस्स आणुपुचीसंकमाणंतरमुवसामिद-णqसय-इत्थिवेदस्स वेदपरिणामविरहेणावक्रमसे नपुसकवेद, स्त्रीवेद और छह नोकषायोंका उपशम करनेके बाद अपगतवेदी होकर चौदह प्रकृतियोंका संक्रामक होता है १। फिर पुरुषवेदके नवकबन्धका उपशम करके तेरह प्रकृतियोंका संक्रामक होता है २ । फिर दो प्रकारके क्रोधका उपशम हो जाने पर ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थानको प्राप्त होता है ३ । फिर क्रोधसंज्वलनके उपशमन द्वारा दस प्रकृतिक संक्रमस्थानको प्राप्त करके ४ दो प्रकारके मानका उपशम करके आठ प्रकृतिक संक्रमस्थानको प्राप्त होता है ५। फिर मानसंज्वलनका उपशम हो जाने पर सात प्रकृतिक संक्रमस्थानको प्राप्त करके ६ अनन्तर दो प्रकारकी मायाको उपशमा कर पाँच प्रकृतिक संक्रमस्थानका स्वामी होता है । फिर माया संज्वलनके उपशमानेके बाद चार प्रकृतिक संक्रमस्थानको प्राप्त करके ८ अनन्तर दो प्रकारके लोभका उपशम हो जाने पर दो प्रकृतियोंका संक्रामक होता है । इस प्रकार जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव पुरुषवेदके उदयसे उपशमणि पर चढ़ कर अपगतवेदी होता है उसके अपगतवेदस्थानमें ये नौ संक्रमस्थान प्राप्त होते हैं। ६३०५. अब पुरुषवेदके उदयसे श्रेणिपर चढ़े हुए इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामक जीवके आनुपूर्वी संक्रमके बाद नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और छह नोकषायोंका उपशम हो जाने पर अपगतवेदसे सम्बन्ध रखनेवाला बारह प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। फिर दो प्रकारके क्रोध, दो प्रकारके मान और दो प्रकारकी माया इन प्रकृतियोंके उपशमभावसे परिणत हुए जीवके क्रमसे नौ, छह और तीन प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार यहां ये चार ही संक्रमस्थान प्राप्त होते हैं, क्योंकि शेष संक्रमस्थान पुनरुक्त देखे जाते हैं। इन चारको पहलेके नौ संक्रमस्थानों में मिला देनेपर तेरह संक्रमस्थान होते हैं। फिर जब यही नपुंसकवेदके उदयसे श्रेणिपर चढ़कर आनुपूर्वीसंक्रमके बाद नपुंसकवेद और स्त्रीवेदका उपशम करके वेदपरिणामसे रहित होकर १. ताप्रतौ णक्क इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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