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१३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगों ६ ६ २९१. 'पंचसु च ऊणवीसा०' एसा णवमी गाहा १९, १८, १४, १३ चउण्हमेदेसिं संकमट्ठाणाणं पडिग्गहट्ठाणपरूवणट्ठमागया। तत्थ ताव 'पंचसु च ऊणवीसा' त्ति भणिदे पंचसु पयडीसु पडिग्गहभावमावण्णासु एऊणवीसाए संकमो होइ त्ति घेत्तव्यं । काओ ताओ पंच पयडीओ ? पुरिसवेद-चउसंजलणसण्णिदाओ, इगिवीससंतकम्मियाणियट्टिउवसामगस्स लोभासंकमाणंतरमुवसामिदणqसयवेदस्स तप्पडि
विशेषार्थ—प्रकृतिसंक्रमस्थानकी इस आठवीं गाथामें दो बातें बतलाई हैं। प्रथम बात तो यह बतलाई है कि अब तक जितने संक्रमस्थान और प्रतिग्रहस्थान कहे गये हैं उनके सिवा आगे जितने भी संक्रमस्थान और प्रतिग्रहस्थान कहे जायगे वे सब उपशमणि और क्षपकश्रेणिमें ही होते हैं। तथा दूसरी यह बात बतलाई गई है कि २० प्रकृतिक संक्रमस्थान का छह और पांच प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानोंमें संक्रम होता है अन्यत्र नहीं। किन्तु श्वेताम्बर परम्परामें प्रसिद्ध कर्मप्रकृतिमें इस बीस प्रकृतिक संक्रमस्थानके प्रतिग्रहस्थान दो न बतलाकर ७, ६ और ५ ग्रंकृतिक तीन बतलाये हैं। इस मतभेदका कारण क्या है अब इस पर विचार कर लेना आवश्यक है । यह तो दोनों परम्पराओंमें समानरूपसे स्वीकार किया है कि उपशमश्रेणिमें अन्तरकरण क्रिया कर लेनेके बाद दूसरे समयसे आनुपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ होता है। किन्तु आनुपूर्वी संक्रमके क्रमके विषयमें दोनों परम्पराओंमें थोड़ा मतभेद मिलता है। यतिवृषभ आचार्य ने अपनी चूणिमें बतलाया है कि अन्तर करनेके बाद प्रथम समयसे लेकर छह नोकषायोंका क्रोधमें संक्रम' होता है अन्य किसीमें संक्रम नहीं होता है। किन्तु स्वेताम्बर परम्परामें प्रसिद्ध कर्मप्रकृतिके उपशमनाकरणकी गाथा ४७ की चूर्णिमें लिखा है कि 'पुरुषवेद' की प्रथम स्थितिमें दो श्रावलि शेष रहने पर अागालका विच्छेद हो जाता है किन्तु अनन्तरवर्ती वलिमेंसे उदीरणा होती रहती है। तथा उसी समयसे लेकर छह नोकषायों के द्रव्यका पुरुषवेदमें संक्रम नहीं होता है। इस मतभेदसे यह स्पष्ट हो जाता है कि कषायनाभृतके अनुसार तो नपुसकवेद और स्त्रीवेदका उपशम हो जानेके बाद पुरुषवेदकी प्रतिग्रहव्युच्छित्ति हो जाती है किन्तु कर्मप्रकृतिके अनुसार नपुसकवेद और स्त्रीवेदका उपशम हो जानेके बाद भी पुरुषवेदमें प्रतिग्रहशक्ति बनी रहती है। यही कारण है कि कषायप्राभृतमें बीस प्रकृतिक संक्रमस्थानके ६ प्रकृतिक और ५ प्रकृतिक ये दो प्रतिग्रहस्थान बतलाये हैं और कर्मप्रकृतिमें बीस प्रकृतिक संक्रमस्थानके ७, ६ और ५ प्रकृतिक तीन संक्रमस्थान बतलाये हैं।
६२९१. 'पंचसु च ऊणवीसा.' यह नौवीं गाथा १९, १८, १४ और १३ इन चार संक्रमस्थानोंके प्रतिग्रहस्थानका कथन करनेके लिये आई है। वहाँ गाथामें जो 'पंचसु च ऊणवीसा' पद कहा है सो इससे प्रतिग्रहरूप पांच प्रकृतियोंमें उन्नीस प्रकृतिक संक्रम होता है यह अथे लेना चाहिये । वे पांच प्रकृतियां कौन सी हैं ? पुरुषवेद और चार संज्वलन ये पांच प्रकृतियां हैं जो प्रकृतमें प्रतिग्रहरूप हैं, क्योंकि इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले अनिवृत्तिकरण उपशामक जीबके लोभ संज्वलनका संक्रम न होनेके बाद नपुसकवेदका उपशम हो जानेपर पांच प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानसे सम्बन्ध रखने वाला उन्नीस प्रकृतिक संक्रमस्थान देखा जाता है । 'अट्ठारस चदुसु०' यह
१. अंतरादो दुसमयकदादो पाये छएणोकसाए कोधे संछुहदि ण अण्णम्हि कम्हि वि । कषाय. उपशा. चु. ६७९०
२. पुरिसवेयस्स पढमहितिते दुयावलियसेसाए अागालो वोछिन्नो । अणंतरावलिगातो उदीरणा एति, ताहे छएहं नोकसायाणं संछोभो णत्थि पुरिसवेदे, संजलणेसु संछुभन्ति । कर्मप्र० उपशा. गा. ४७ चु.
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