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________________ १२० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ संकमावेक्खं वा समुवजायदे। एदेणेव दुविहलोहमुवसामिय लोभसंजलणपडिग्गहवोच्छेदे कदे मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तसंकमपाओग्गं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तपडिबद्धं दोण्हं पयडिपडिग्गहट्ठाणमुप्पजइ । २८२. संपहि इगिवीससंतकम्मियमस्सिऊणुवसमसेढीए संभवंताणं पडिग्गहटाणाणमुप्पत्ती वुच्चदे । तं कथं ? इगिवीससंतकम्मियस्स उवसमसेढिं चढिय अणियट्टिगुणट्ठाणम्मि पंचविहं बंधमाणस्स एक्कावीस-वीस-एगूणवीसपयडिसंकमाहारभूदं पंचपडिग्गहट्ठाणमुप्पजइ । पुणो एदेण णवूस-इत्थिवेदाणमु वसमं काऊण पुरिसवेदपडिग्गहविणासे कए चउण्हं पडिग्गहट्ठाणमट्ठारसपयडिसंकमपडिबद्धमुप्पज्जइ । तेणेव सत्तणोकसाय-दुविहकोहोवसमणवावारेण कोहसंजलणपडिग्गहवोच्छेदे कदे तिण्हं पडिग्गहट्ठाणं णवपयडिसंकमपडिबद्धमुप्पज्जइ । पुणो कोहसंजलणेण सह दुविहमाणोवसमं काऊण माणसंजलणपडिग्गहवोच्छेदे कदे दोण्हं पडिग्गहट्ठाणं छप्पयडिसंकमपडिबद्धमुप्पजइ । पुणो माणसंजलण-दुविहमायोवसामणेण मायासंजलणपडिग्गहवोच्छेदे कदे एकिस्से पडिग्गहट्ठाणं तिण्हं पयडिसंकमट्ठाणपडिबद्धमुप्पजइ, मायासंजलणेण सह दुविहलोहस्स लोहसंजलणम्मि ताधे संकतिदंसणादो। एवं खवगस्स वि पंचविहबंधगप्पहुडि उवरिमपडिग्गहट्ठाणाणं समुप्पत्ती वत्तव्या, जहाकम तत्थ पंच-चदु-ति-दु-एकविधबंधट्ठाणेसु प्रतिग्रहस्थान उत्पन्न होता है। फिर जब वही जीव दो प्रकारके लोभका उपशम करके लोभसंज्वलनकी प्रतिग्रहव्युच्छित्ति कर देता है तब मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रमके योग्य सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वसम्बन्धी दो प्रकृतिक प्रतिग्रह स्थान उत्पन्न होता है । $ २८२. अब इक्कीस प्रकृतिक सत्तास्थानकी अपेक्षा उपशमनेणिमें सम्भव प्रतिग्रहस्थानों की उत्पत्तिका विवेचन करते हैं। यथा-जो इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव उपशमश्रेणिपर चढ़कर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें पांच प्रकृतिक बन्ध करता है उसके इक्कीस, बीस और उन्नीस प्रकृतिक संक्रमस्थानोंका आधारभूत पांच प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान उत्पन्न होता है। फिर जब यह जीव नपुंसकवेद और स्त्रीवेदका उपशम करके पुरुषवेदकी प्रतिग्रहब्युच्छित्ति करता है तब अठारह प्रकृतिक संक्रमस्थानसे सम्बन्ध रखनेवाला चार प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान उत्पन्न होता है। फिर जब वही जीव सात नोकषाय और दो प्रकारके क्रोधका उपशम करके क्रोधसंज्वलनकी प्रतिग्रहव्युच्छित्ति कर देता है तब उसके नौ प्रकृतिक संक्रमस्थानसे सम्बन्ध रखनेवाला तीन प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान उत्पन्न होता है। फिर जब वही जीव क्रोधसंज्वलनके साथ दो प्रकारके मानका उपशम करके मानसंज्वलनकी प्रतिग्रहव्युच्छित्ति कर देता है तब छह प्रकृतिक संक्रमस्थानसे सम्बन्ध रखनेवाला दो प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान उत्पन्न होता है। फिर जब वही जीव मानसंज्वलन और दो प्रकारकी मायाका उपशम करके मायासंज्वलनकी प्रतिग्रहव्युच्छित्ति कर देता है तब उसके तीन प्रकृतिक संक्रमस्थानसे सम्बन्ध रखनेवाला एक प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि तब मायासंज्वलनके साथ दो प्रकारके लोभका लोभसंज्वलनमें संक्रम देखा जाता है। इसीप्रकार क्षपक जीवके भी पांच प्रकारके बन्धस्थानसे लेकर आगेके प्रतिप्रहस्थानोंकी उत्पत्तिका कथन करना चाहिये, क्योंकि वहाँ क्रमसे पांच प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें इक्कीस, तेरह, बारह और ग्यारह प्रकृतिक संक्रम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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