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________________ १०3 गा० २७ ] ट्ठाणसमुक्त्तिणा संबंधेण गवेसिजमाणाणं तेसिं संभवाणुवलंभादो । २४८. एवं पयदत्थोवसंहारं काऊण संपहि चोदससंकमट्ठाणस्स पयडिणिद्देसमुहेण परूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणइ * चोदसएहं चउवीसदिकम्मंसियस्स छसु कम्मेसु उवसामिदेसु पुरिसवेदे अणुवसंते । __$ २४९. सुगममेदं सुत्तं, अणंतरादीदकारणपरूवणाए गयत्थत्तादो । ओदरमाणसंबंधेण वि पयदट्ठाणसंभवो एत्थाणुमग्गियव्यो । 'प्रकृतियोंका भी संक्रम नहीं होता है, क्योंकि तीन पुरुषों ( स्वामियों ) के सम्बन्धसे विचार करनेपर उक्त स्थानोंकी संक्रमस्थानरूपसे सम्भावना नहीं उपलब्ध होती। . विशेषार्थ-यहां सत्रह, सोलह और पन्द्रह प्रकृतिक स्थानोंका संक्रम क्यों नहीं होता है यह बतलाया है जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है उसके जब आठ कषायोंका क्षय होता है तब इक्कीससे इकदम तेरह प्रकृतिक संक्रम स्थान उत्पन्न होता है, इसलिये तो क्षपकश्रेणिवाले जीवके ये स्थान सम्भव नहीं होनेसे इनका संक्रम नहीं बनता । उपशमश्रेणिकी अपेक्षा भी यदि इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशमश्रेणि पर चढ़ता है तो पहले वह आनुपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ करके २० प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त करता है। फिर नपुसकवेदका उपशम करके १६ प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त करता है । फिर स्त्रीवेदका उपशम करके १८ प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त करता है । इसके बाद इसके एक साथ छह नोकषायोंका उपशम होनेसे बारह प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त होता है इसलिये इसके भी सत्रह, सोलह और पन्द्रह प्रकृतिक संक्रमस्थान सम्भव न होनेसे उनका संक्रम नहीं बनता है। अब रहा चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपर रामक जीव सो इसके प्रारम्भमें तो तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है, क्योंकि उसके सम्यक्त्वप्रकृतिका संक्रम नहीं होता। फिर भानुपूर्वीसंक्रमका प्रारम्भ होने पर बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। फिर नपुसकवेद और स्त्रीवेदका उपशम होने पर क्रमसे इक्कीस और बीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । इसके बाद इसके भी छह नोकषायोंका एक साथ उपशम होनेके कारण चौदह प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार इसके भी सत्रह, सोलह और पन्द्रह प्रकृतिक संक्रमस्थान सम्भव नहीं होनेसे उनका संक्रम नहीं होता है। यही कारण है कि प्रकृतमें इन तीन संक्रमस्थानोंका निषेध किया है। ६२४८. इस प्रकार प्रकृत अर्थका उपसंहार करके अब चौदह संक्रमस्थानकी प्रकृतियोंके निर्देश द्वारा कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं . * चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके छह नोकषायोंका उपशम होकर पुरुष वेदका उपशम नहीं होने तक चौदह प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । ६२४६. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि अनन्तरपूर्व कारणका कथन करते समय इसका विचार कर चुके हैं। उपशमश्रेणिसे उतरनेवाले जीवके सम्बन्धसे भी यहाँ पर प्रकृत स्थानका विचार कर लेना चाहिये। विशेषार्थ यहाँ चौदह प्रकृतिकसंक्रमस्थान दो प्रकारसे बतलाया है। एक चढ़ते समय और दूसरा उतरते समय । चढ़ते समय चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जिस जीवके क्रमसे आनुपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ होकर नपुसकवेदका उपशम,स्त्रीवेदका उपशम और छह नोकषायोंका उपशम हो गया है उसके यह स्थान प्राप्त होता है । तथा उतरते समय अप्रत्याख्यानावरण क्रोध और प्रत्याख्यानावरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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