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________________ ६७ गा• २७ ] ट्ठाणसमुक्त्तिणा - एकवीसाए खीणदसणमोहणीयस्स अक्खवग-अणुवसामगस्स । २३६. खीणदसणमोहणीयस्स अक्खवगाणुवसामगस्स इगिवीससंकमट्ठाणमुप्पाइ ति सुत्तत्थसंबंधो खवगमुवसामगं च वजिययूणण्णत्थ' खीणदंसणमोहणीयस्स पयदसंकमट्ठाणसंभवो त्ति भणिदं होइ । किमिदि खवगोवसामगपरिवजणं कीरदे ? ण, तस्थाणुपुषीसंकमादिवसेण द्वाणंतरुप्पत्तिदंसणादो । एत्थ खवगोवसामगववएसो अणियडिअद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु संखेज्जदिमे भागे सेसे विवक्खिओ, तत्थेव खवणोवसामणवावारपउत्तिदंसणादो । चउवीसदिसंतकम्मियस्स वा एउंसयवेदे उवसंते इत्थिवेदे मणुवसंते । लोभ इन दो प्रकृतियोंका संक्रम नहीं होता, अतः यहाँ बाईस प्रकृतिकसंक्रमस्थान प्राप्त होता है। दूसरा प्रकार यह है कि यह जीव उपशमश्रेणिसे उतरता हुआ वीवेदका अपकर्षण करनेके बाद जब तक नपुंसकवेदका अपकर्षण नहीं करता है तब तक बाईस प्रकृतिकसंक्रमस्थान होता है। यहाँ आनुपूसिंक्रमके न रहनेसे यद्यपि लोभका संक्रम तो होने लगता है पर अभी नपुसकवेदका संक्रम नहीं प्रारम्भ हुआ है इसलिये बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। इस प्रकार यद्यपि उपशमश्रेणिमें बाईस प्रकृतिक दो संक्रमस्थान होते हैं तथापि चूर्णिकारने चढ़ते समयके एक संक्रमस्थानका ही निर्देश किया है दूसरेका नहीं। दूसरेका क्यों निर्देश नहीं किया इसका कारण बतलाते हुए टीकामें जो कुछ लिखा है उसका भाव यह है कि उतरते समय जो बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त होता है उसे प्रधान न मानकर उसका उल्लेख नहीं किया है। ___* जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय कर दिया है किन्तु जो क्षपक या उपशमक नहीं है उसके इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । ... २३६. जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय कर दिया है किन्तु जो क्षपक या उपशामक नहीं है उसके इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है यह इस सूत्रका तात्पर्य है। क्षपक या उपशामकको छोड़कर जिसने दर्शनमोहनीयको क्षपणा कर दी है ऐसे जीवके अन्यत्र प्रकृत संक्रमस्थान सम्भव है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-क्षपक और उपशामकका निषेध क्यों किया है ? समाधान नहीं, क्योंकि क्षपक या उपशामकके आनुपूर्वी संक्रम आदिके कारण दूसरे स्थानोंकी उत्पत्ति देखी जाती है। प्रकृतमें क्षपक और उपशामक यह संज्ञा अनिवृत्तिकरणके कालका बहुभाग व्यतीत होकर एक भाग शेष रहने पर जो जीव स्थित हैं उनकी अपेक्षा विवक्षित है, क्योंकि क्षपणा और उपशामनारूप व्यापारकी प्रवृत्ति वहीं पर देखी जाती है। * अथवा चौबीस प्रकृतिक सत्कर्मवाले जीवके नपुंसकवेदका उपशम होने पर और स्त्रीवेदका उपशम नहीं होने पर इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। १. श्रा० प्रतौ वजियमणण्णत्थ इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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