SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ ९ २१५. पुव्वत्ताणमणियोगद्दाराणमादिम्मि जं पदं ठविदं ठाणसमुक्कित्तणा ति तस्स विहासा करदिति सुत्तत्थसंबंधी । तत्थ य एगा गाहा पडिबद्धा त्ति जाणावण ' जत्थ एया गाहा' पडिबद्धा त्ति भणिदं । संपहि का सा गाहा त्ति आसंकाए इदमाहअट्ठावीस चवीस सत्तरस सोलसेव परणरसा । एदे खलु मोत्तृणं सेसा संकमो होइ ॥ २७॥ ६० $ २१६. एसा गाहा ठाणसमुक्कित्तणे पडिबद्धा ति उत्तं होइ । संपहि एदिस्से गाहाए अत्येविहासणमिदमाह - I * एवमेदाणि पंच द्वाणापि मोत्तूण सेसाणि तेवीस संकमहापाणि । २१७. 'एवमेदाणि' त्ति वयणेण गाहासुत्त पुव्वणि दिवाणमट्ठावीसादीणं परामरसो कओ । तेसिं संखाविसेसावहारण 'पंच द्वाणाणि' त्ति उत्तं । ताणि मोत्तृण साणि संकमट्टाणाणि होंति । तेसिं च संखाणं विसेसणिद्धारणङ्कं ' तेवीस' गहणं कयं । तदो २८, २४, १७, १६, १५ एदाणि पंच द्वाणाणि असंकमपाओग्गाणि । सेसाणि सत्तावीसादीणि तेवीस संकमट्ठाणाणि त्तिसिद्धं । तेसिमंकविण्णासो एसो २७, २६, २५, २३, २२, २१, २०, १९, १८, १४, १३, १२, ११, १०, ९, ८, ७, ६, ४, ३, २, १ | संपहि एदेसिं ट्ठाणाणं पयडिणिद्देसकरणमुत्तरमुत्तावयारो कीरदे $ २१५. पूर्वोक्त अनुयोगद्वारोंके आदि में जो 'स्थानसमुत्कीर्तना' पद आया है उसका विशेष व्याख्यान करते हैं यह उक्त सूत्रका प्रकरणसंगत अर्थ है । इस विषय में एक गाथा आई है यह जताने के लिये सूत्र में ' जत्थ एया गाहा पडिबद्धा' यह कहा | अब वह कौनसी गाथा है ऐसी आशंका होने पर उसका निर्देश करते हैं ܟ 'अट्ठाईस, चौबीस, सत्रह, सोलह और पन्द्रह इन पाँच स्थानोंके सिवा शेष तेईस स्थानोंका संक्रम होता है ।' $ २१६. यह गाथा स्थान समुत्कतन अनुयोगद्वार से सम्बन्ध रखती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इस गाथा के अर्थका विशेष व्याख्यान करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं* इस प्रकार इन पाँच स्थानोंके सिवा शेष तेईस संक्रमस्थान हैं । $ २१७. चूर्णिसूत्र में जो 'एवमेदाणि' पद आया है सो इस पदके द्वारा गाथासूत्र के पूर्वार्धमें बतलाये गये अट्ठाईस आदि स्थानोंका निर्देश किया है। उनकी संख्याविशेषका निश्चय करनेके लिये 'पंच द्वाणाणि' यह कहा है । इनके सिवा शेष संक्रमस्थान हैं। उनकी संख्याविशेषका निश्चय करनेके लिये 'तेईस' पदको ग्रहण किया है । इसलिये २८ २४, १७, १६ और १५ ये पाँच स्थान संक्रमके अयोग्य हैं और शेष २७ आदि तेईस संक्रमस्थान हैं यह बात सिद्ध होती है । उनका अंकविन्यास इस प्रकार है - २७, २६, २५, २३, २२, २१, २, १९, १८, १४, १३, १२, ११, १०, ६, ८, ७, ६, ५ १, ३, २, और १ । अब इन स्थानों की प्रकृतियों का निर्देश करनेके लिये १. ताप्रतौ श्रद्ध (त्थ ) - इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy