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जयधवलासहित कषायप्रामृत
करका अनुमान है कि यह वाटग्राम बड़ौदा हो सकता है क्योंकि वड़ौदाका प्राचीन नाम वटपद था और वह गुजरातमें भी है तथा वहाँसे राष्ट्रकूट राजाओंके कुछ ताम्रपत्र भी मिले हैं। वाटग्रामके गुजरातमें होने और गुजरातका प्रदेश उसी समयके लगभग अमोघवर्षके राज्यमें आनेके कारण ही सम्भवतः श्री जिनसेनने गुर्जरनरेन्द्र करके अमोघवर्षका उल्लेख किया है। हम ऊपर लिख आये हैं कि गुर्जरनरेन्द्रकी प्रशंसा करते हुए उसकी कीर्तिके सामने गुप्तनरेशकी कीर्तिको भी अतितुच्छ बतलाया है। गुजरातके संजोन स्थानसे प्राप्त एक ताम्रपत्रमें अमोघवर्षकी प्रशंसामें एक श्लोक इस प्रकार मिलता है
"हत्वा भ्रातरमेवराज्यमहरत् देवी च वीनस्तथा, लक्षं कोटिमलेखयत् किल कलौ दाता स गुप्तान्वयः । येनात्याजि तनुः स्वराज्यमसकृत् वासार्थकः का कथा,
ह्रीस्तस्योन्नति राष्ट्रकूटतिलक दातेति कीामपि ॥४८॥" ___ इसमें बतलाया है कि जिस अमोघवर्ष राजाने अपना राज्य और शरीर तक त्याग दिया उसके सामने वह दीन गुप्तवंशी नरेश क्या चीज है जिसने अपने सहोदर भाईको ही मारकर उसका राज्य और पत्नी तकको हर लिया।
भारतीय इतिहाससे परिचित जन जानते हैं कि गुप्तवंशमें समुद्रगुप्तका पुत्र चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य बड़ा प्रतापी राजा हुआ है । इसने भारतसे शक राज्यको उखाड़ फेका था। यह समुद्रगुप्तका छोटा बेटा था । समुद्रगुप्त इसोको अपना उत्तरधिकारी बनाना चाहता था । परन्तु मंत्रियोंने बड़े पुत्र रामगुप्तको ही राज्य दिलवाया । उसके राज्य पाते ही कुषानवंशी राजाने गुप्त साम्राज्यपर चढ़ाई कर दी। रामगुप्त घिर गया । और अपनी रानी ध्रुवस्वामिनीको सौंप देनेकी शर्तपर उसने शत्रसे छुटकारा पाया । तब चन्द्रगुप्तने कायर भाईको अपने मार्गसे हटाकर उसके राज्य और देवी ध्रुवस्वामिनीपर अपना अधिकार कर लिया । उक्त श्लोकमें अमोघवर्षकी प्रशंसा करते हुए इसी घटनाका चित्रण किया गया है । इस चित्रणके आधारपर हमारा अनुमान है कि जयधवलाकी प्रशस्तिके १२ वें श्लोकमें जिस गुप्तनृपतिका उल्लेख किया गया है वह चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ही होना चाहिये । शकोंको भगानेके कारण उसकी उपाधि शकारि भी थी। सम्भवतः 'शकस्य' पदसे उसकी उसी उपाधिकी ओर या उसके कार्यकी
ओर सङ्केत किया गया है। इस परसे हमारे इस अनुमानकी और भी पुष्टी होती है कि गुर्जरनरेन्द्रसे आशय अमोघवर्षका ही है। अतः जयधवलाकी अन्तिम प्रशस्तिसे यह स्पष्ट है कि जयधवलाकी रचना अमोघवर्षके राज्यमें शक सं० ७५९ में हुई थी।
(9) वी०नि० सं० २४३५ में प्रकाशित पाश्र्वाभ्यवय काव्यकी प्रस्तावनामें डा० के० बी० पाठकने जयघवलाको प्रशस्तिके जो श्लोक उद्धृत किये हैं, उनमें 'वाटग्रामपुरे' के स्थानमें 'मटग्रामपुरे' पाठ मुद्रित है। यह पाठ उपलब्ध प्रतियोंमें तो नहीं है। संभवतः यह पाठ स्वयं डा० के० बी० पाठकके द्वारा ही कल्पित किया गया है। चूंकि अमोघवर्षकी राजधानी मान्यखेट थी जिसे आजकल मलखेड़ा कहते हैं । उससे मिलता जुलता होनेसे वाटग्रामके स्थानमें उन्हें 'मटग्राम' पाठ शुद्ध प्रतीत हुआ होगा। यद्यपि इस सुधारसे हम सहमत नहीं हैं फिर भी इससे इतना तो स्पष्ट है कि डा० पाठक भी गुर्जरनरेन्द्रसे अमोघवर्षका ही ग्रहण करते थे। (२) एपि० इ०, जिल्द १८, पु० २३५ । इस उद्धरण के लिये हम हि० वि० वि० काशीमें प्राचीन इतिहास और संस्कृति विभागके प्रधान डाक्टर आल्टेकरके आभारी हैं। (३) ऊपर हम लिख पाये हैं कि अमोघवर्षका राज्यकाल श० सं० ७३६ से ७९९ तक माना जाता है। किन्तु इसमें एक बाधा आती है । वह यह कि जिनसेन स्वामीने अपने पाश्र्वाभ्युदय काव्यके अन्तिमसर्गके ७० वें श्लोकमें
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