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रचनाकाल
जयधवलासहित कषायप्राभूत अनुभागविभक्ति और प्रदेश विभक्तिमें उक्त सभी अधिकार गर्भित समझे जाते हैं अतः चार विभक्तिके उल्लेखसे उनका आशय प्रथम स्कन्धका मालूम होता है। किन्तु जयधवलाकी प्रतिके
आधारसे गणना करनेपर विभक्ति अधिकार पर्यन्त ग्रन्थका परिमाण लगभग साढ़े २६ हजार श्लोक प्रमाण बैठता है। यहीं तक ग्रन्थका विवेचन विस्तृत और स्पष्ट भी प्रतीत होता है, आगे उतना विस्तृत वर्णन भी नहीं है। अतः सम्भवतः पहले स्कन्ध पर्यन्त श्री वीरसेन स्वामीकी रचना है। इन्द्रनन्दिने प्रत्येक स्कन्धको एक एक भाग समझकर मोटे रूपसे उसका परिमाण २० हजार लिख दिया जान पड़ता है। अथवा यह भी संभव है कि उन्होने चार विभक्तिसे केवल चार ही विभक्ति का ग्रहण किया हो और पूरे प्रथम स्कन्धका ग्रहण न किया हो। अस्तु, जो कुछ हो, किन्तु इतना स्पष्ट है कि इन्द्रनन्दिके कथनानुसार एक भागके रचयिता श्री वीरसेन स्वामी थे और शेष दो भाग प्रमाण ग्रन्थ उनके शिष्य जिनसेनने रचकर समाप्त किया था। इस बारेमें जिनसेन स्वयं इतना ही कहते हैं कि बहुवक्तव्य पूर्वार्धकी रचना उनके गुरुने की और अल्पवक्तव्य पश्चार्धकी रचना उन्होने की । वह बहुवक्तव्य पूर्वार्ध विभक्ति अधिकार पर्यन्त प्रतीत होता है।
जयधवलाकी अन्तिम प्रशस्तिके आरम्भमें उसकी रचनाका काल और स्थान बतलाते हुए लिखा हैजयधवला
"इति श्री वीरसेनीया टीका सूत्रार्थदर्शिनी। का
वाटग्रामपुरे श्रीमद्गुर्जरार्यानुपालिते ॥६॥ फाल्गुणे मासि पूर्वाण्हे दशम्यां शुक्लपक्षके । प्रवर्द्धमानपूजोरुनन्दीश्वरमहोत्सवे ॥७॥ अमोघवर्षराजेन्द्रराज्यप्राज्यगुणोदया। निष्ठिता प्रचयं यायादाकल्पान्तमनल्पिका ॥८॥ एकान्नषष्ठिसमधिकसप्तशताब्देषु शकनरेन्द्रस्य ।
समतींतेषु समाप्ता जयधवला प्राभृतव्याख्या ॥११॥" इसमें बतलाया है कि कषाय प्राभृतकी व्याख्या श्री वीरसेन रचित जयधवला टीका गुर्जरायके द्वारा पालित वाटग्रामपुरमें, राजाअमोघवर्षके राज्यकालमें, फाल्गुन शुक्ला दशमीके पूर्वाण्हमें जबकि नन्दीश्वर महोत्सव मनाया जा रहा था, शकराजाके ७५६ वर्ष बीतनेपर समाप्त हुई। इससे स्पष्ट है कि शक सम्वत् ७५६ के फाल्गुन मासके शुक्ल पक्षकी दशमी तिथिको जयधवला समाप्त हुई थी। धवलाकी अन्तिम प्रशस्तिमें उसका रचनाकाल शक सम्वत् ७३८ दिया है। शक सम्वत् ७३८ के कार्तिक मासके शुक्ल पक्षकी त्रयोदशीके दिन धवला समाप्त हुई थी। अतः धवलासे जयधवला अवस्थामें भी २१ वर्ष और चार मासके लगभग छोटी है।
धवलामें उस समय जगत्तंगदेवका राज्य बतलाया है और अन्तके एक श्लोकमें यह भी लिखा है कि उस समय नरेन्द्र चूडामणि बोढणराय पृथ्वीको भोग रहे थे। किन्तु जयधवलामें स्पष्ट रूपसे अमोघवर्ष राजाके राज्यका उल्लेख किया है । यह राजा जैन था और स्वामी जिनसेनाचार्यका भक्त शिष्य था। जिनसेनके शिष्य श्री गुणभद्राचार्यने उत्तर पुराणके अन्तमें लिखा है कि राजा अमोघवर्ष स्वामी जिनसेनके चरणोंमें नमस्कार करके अपनेको पवित्र हुआ मानता था । यथा
"यस्य प्रांशुनखांशुजालविसरद्वारन्तराविर्भवत्पांदाम्भोजरजःपिशङ्गमकुटप्रत्यग्ररत्नद्युतिः ।
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