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________________ प्रस्तावना कल्याणविजय जी आदिका कहना है कि आर्यमंगु और आर्यनन्दिलके बीचमें चार आचार्य और हो गये हैं। उनका यह भी कहना है कि नन्दिसूत्रकी पट्टावलीमें आर्यमंगु और आर्यनन्दिल के बीच में होनेवाले उन चार आचार्यों के सम्बन्धकी दो गाथाएं छूट गई हैं जो अन्यत्र मिलती हैं। अपने इस मतकी पुष्टि में उनका कहना है कि आर्यमंगुका युगप्रधानत्व वीरनि० सम्वत् ४५१ से ४७० तक था । परन्तु आर्यनन्दिलका समय आर्यमंगुसे बहुत पीछेका है क्योंकि वे आर्यरक्षितके पश्चात्भावी स्थविर थे, और आयरक्षितका स्वर्गवास वीरनि० सम्वत् ५९७ में हुआ था। इसलिये आर्यनन्दिल ५९७ के पीछेके स्थविर हो सकते है। इस प्रकार मुनिजीकी कालगणनाके अनुसार आर्यमंगु और आर्यनन्दिलके बीचमें १२७ वर्षका अन्तर रहता है। और उसमें आर्य नन्दिलका समय और जोड़ देने पर आर्यमंगु और नागहस्तिके बीचमें १५० वर्षके लगभग अन्तर बैठता है। अतः आर्यमंगु और नागहस्ति समकालीन व्यक्ति नहीं हो सकते । किन्तु जयधवलाकार चूर्णिसूत्रोंके कर्ता आचार्य यतिवृषभको दोनोंका शिष्य बतलाते हैं । यथा "जो अज्जमखसिस्सो अंतेवासी वि नागहथिस्स । सो वित्तिसुत्तकत्ता जइवसहो मे वरं देउ॥" समयकी इस समस्याको सुलझानेके लिये यतिवृषभको आर्यमंक्षुका परम्पराशिष्य और आय नागहस्तिका साक्षात् शिष्य मान लिया जा सकता था और ऐसा माननेमें जयधवलाकारके उक्त उल्लेखसे कोई विरोध नहीं आता था। क्योंकि वे यतिवृषभको आर्यमंक्षुका शिष्य और नागहस्तीका अन्तेवासी बतलाते हैं। यद्यपि साधारण तौरपर शिष्य और अन्तेवासीका एक ही अर्थ माना जाता है फिर भी अन्तेवासीका शब्दार्थ निकटमें रहनेवाला भी होता है और इसलिये नागहस्तिका उन्हें निकटवर्ती-साक्षात् शिष्य और आर्यमंञ्जका शिष्य-परम्परा शिष्य मान लिया जा सकता था। किन्तु उससे भी समस्या नहीं सुलझती है। क्योंकि जयधवलाकारका कहना है कि गुणधररचित गाथाएँ आचार्य परम्परासे आकर आर्यमंक्षु और नागहस्ति आचार्यको प्राप्त हुई और गुणधर आचार्य अङ्गज्ञानियोंकी परम्पराके पश्चात अर्थात् वीर नि० सम्वत् ६८३ के बादमें हुए। अब यदि आर्यमंचका अन्त वी० सं० ४७० में ही हो जाता है तो उन्हें तो गुणधरकी गाथाएं प्राप्त ही नहीं हो सकतीं; क्योंकि गुणधरका समय उनसे दो सौ वर्षसे भी वादमें पड़ता है। रह जाते हैं नागहस्ति । उनका युगप्रधानत्वकाल श्वेताम्बर परम्परामें ६६ वर्ष माना गया है। अतः यदि वे वी० नि० सं० ६२० में पट्टासीन होते हैं तो उनका समय ६८९ तक जाता है। यदि गुणधरको वी०नि० सं० ६८३ के लगभगका ही विद्वान मानकर सीधे गुणधरसे ही नागहस्तिको कसायपाहुडकी प्राप्ति हुई मान ली जाय जैसा कि इन्द्रनन्दिका मत है तो गुणधर और नागहस्तिका पौर्वापर्य ठीक बैठ जाता है । किन्तु उसमें एक दूसरी अड़चन उपस्थित हो जाती है। जयधवलाकार और इन्द्रनन्दि दोनोंका कहना है कि आर्यमंच और नागहस्तिके पासमें कषायप्राभृतका अध्ययन करके आचार्य यतिवृषभने उनपर चूर्णिसूत्र रचे । किन्तु आचार्य यतिवृषभका समय, जैसा कि हम आगे बतलायेंगे, वी०नि० सं० १००० के लगभग बैठता है । अतः यदि जयधवलाके आर्यमंच और नागहस्तीको श्वेताम्बर परम्पराके आर्यमंगु और नागहस्ति माना जाता है तो गुणधर, आयमंच और नागहस्ति तथा यतिवृषभका वह पौवापर्य नहीं बैठता जिसका उल्लेख जयधवलाकारने किया है और जो श्रुतावतारके कर्ता इन्द्रनदिको भी अभीष्ट है। उनका ऐक्य माननेसे गुणधर और नागहस्तिका पौर्वापर्य बन जानेपर भी कमसे कम आर्यमंच और (१) वीरनिर्वाण सम्वत् और जैनकाल गणना, पृ० १२४ । (२) तत्त्वान० श्रुताव० श्लो० १५४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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