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________________ ४४ जयधवलासहित कषायप्राभृत चूर्णिसूत्र में स्पष्ट ही 'संखेज्जगुणमाउादो' ऐसा कहा है। अतः दूसरा जो पवाइज्जंत उपदेश है उसीका मुख्यतासे अवलम्बन करना चाहिये ।' यद्यपि सम्यक्त्व अनुयोगद्वारमें दोनोंके ही उपदेशोंको पवाइज्जंत कहा है। यथा "पवाइज्जतेण पुण उवएसेण सव्वाइरियसम्मदेण अज्जमखुणागहथिमहावाचयमुहकमलविणिग्गयेण सम्मत्तस्स अट्ठवस्साणि ।" प्रे० पृ० ६२६१ । किन्तु इसका कारण यह मालूम होता है कि यहां दोनों आचार्यों में मतभेद नहीं है। अर्थात् आर्यमंचका भी वही मत है जो नागहस्तीका है। यदि आर्यमंक्षुका मत नागहस्तीके प्रतिकूल होता तो यहां भी उसे अपवाइज्जत ही कहा जाता। अतः यह स्पष्ट है कि जेठे होने पर भी आर्यमंक्षुकी अपेक्षा प्रायः नागहस्तीका मत ही सर्वाचार्यसम्मत माना जाता था, कमसे कम जयधवलाकारको तो यही इष्ट था। इन दोनों प्राचार्योंको भी जयधवलाकारने महावाचक लिखा है। और इन दोनों आचार्योंका भी उल्लेख धवला, जयधवला और श्रुतावतारके सिवाय उपलब्ध दिगम्बर साहित्यमें अन्यत्र नहीं पाया जाता है। किन्तु कुछ श्वेताम्बर पट्टावलियोंमें अज्जमंगु और अन्जनागहत्थीका उल्लेख मिलता है। नन्दिसूत्रकी पट्टावलीमें अज्जमंगुको नमस्कार करते हुए लिखा है “भणगं करगं झरगं पभावगं णाणदंसणगुणाणं। वंदामि अज्जमंगु सुयसागरपारगं धीरं ॥२८॥" अर्थात्-सूत्रोंका कथन करनेवाले, उनमें कहे गये प्राचारका पालन करनेवाले, ध्यानी, ज्ञान और दर्शन गुणोंके प्रभावक तथा श्रुतसमुद्र के पारगामी धीर आर्यमंगुको नमस्कार करता हूँ।' आगे नागहस्ती का स्मरण करते हुए लिखा है “बड्ढउ वायगवंसो जसवंसो अज्जणागहत्थीणं । ___ वागरणकरणभंगियकम्मपयडीपहाणाणं ॥३०॥" अर्थात्-'व्याकरण, करण, चतुर्भङ्गी आदिके निरूपक शास्त्र तथा कर्मप्रकृतिमें प्रधान आर्य नागहस्तीका यशस्वी वाचक वंश बढ़े।' नन्दिसूत्रमें आर्यमंगुके पश्चात् आर्य नन्दिलका स्मरण किया है और उसके पश्चात् नागहस्तीका । नन्दिसूत्रकी चूणि तथा हारिभद्रीय वृत्तिमें भी यही क्रम पाया जाता है । तथा दोनों में आर्यमंगुका शिष्य आर्यनन्दिल और आर्यनन्दिलका शिष्य नागहस्तीको बतलाया है। यथा "आर्यमंगुशिष्यं आर्यनन्दिलक्षपणं शिरसा वन्दे । . . . . . . . 'आर्यनन्विलक्षपणशिष्याणां आर्यनागहस्तीगां...।" हा० वृ० । इससे आर्यमंगुके प्रशिष्य आर्यनागहस्ति थे ऐसा प्रमाणित होता है। तथा नागहस्तिको कर्मप्रकृतिमें प्रधान बतलाया है और उनके वाचक वंशकी वृद्धिकी कामना की है। कुछ श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में आर्यमंगुकी एक कथा भी मिलती है जिसमें लिखा है कि वे मथुरामें जाकर भ्रष्ट हो गये थे। नागहस्तोको वाचकवंशका प्रस्थापक भी बतलाया है इससे स्पष्ट है कि वे वाचक जरूर थे तभी तो उनकी शिष्य परम्परा वाचक कहलाई । इन सब बातोंपर दृष्टि देनेसे तो ऐसा प्रतीत होता है कि श्वेताम्बरपरम्पराके आर्यमंगु और नागहस्ती तथा धवला जयधवलाके महावाचक आर्यमंक्षु और महावाचक नागहस्ति सम्भवतः एक ही हैं किन्तु मुनि (१) अभि० रा० को० में अज्जमंगु शब्द । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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