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________________ ३६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती ? ६३८३. खेत्ताणुगमेण दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण पेजदोसविहत्तिया केवडि खेत्ते ? सव्वलोए । एवं सव्वासिमणंतरासीणं वत्तव्वं । पुढवी० आउ०तेउ०वाउ०तेसिं० [बादर०]वादरअपज्जत्त-सुहुमपुढची सुहुमआउ०सुहुमतेउ०सुहुमवाउ०तेसिं पजत्तापजत्त-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीर०बादरणिगोदपडिष्टिद०तेसिमपजताणं च ओघभंगो । बादरवाउपजत्ता केवाडि खेत्ते ? लोगस्स संखेजदिभागे । णिरयगइयादिसेसमग्गणाणं परित्तापरित्तरासीणं पेजदोसविहत्तिया केवडि खेते? लोगस्स असंखेजदिभागे। एवं खेत्तं समत्तं । ६३८३. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा पेज्ज और दोषसे विभक्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? समस्त लोकमें रहते हैं। परिमाणानुयोगद्वार में तिर्यंचसामान्यसे लेकर अनाहारक तक जितनी भी अनन्त जीवराशियां कह आये हैं उन सबके क्षेत्रका इसीप्रकार कथन करना चाहिये । अर्थात् उन सबका क्षेत्र समस्त लोक है। सामान्य पृथिवीकायिक, सामान्य अप्कायिक, सामान्य तेजस्कायिक, सामान्य वायुकायिक जीवोंका तथा उन्हीं चार कायिकोंके बादर और बादर अपर्याप्त जीवोंका, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्मजलकायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक और सूक्ष्म वायुकायिक जीवोंका तथा उन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर और बादरनिगोद प्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर जीवोंका तथा इन्हींके अपर्याप्त जीवोंका क्षेत्र ओघप्ररूपणाके समान सर्वलोक है। बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। ऊपर जिन मार्गणाओंका क्षेत्र कह आये हैं उनके अतिरिक्त परिमित अर्थात् संख्यात और अपरिमित अर्थात् असंख्यात संख्यावाली नरकगति आदि शेष मार्गणाओंमें पेज्जवाले और दोषवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते है। विशेषार्थ-क्षेत्रानुयोगद्वारमें वर्तमानकालमें सामान्य जीव और प्रत्येक मार्गणावाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं इसका विचार किया गया है । इसके लिये जीवोंकी स्वस्थान, समुद्धात और उपपाद ये तीन अवस्थाएं प्रयोजक मानी हैं। स्वस्थानके स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान ये दो भेद हैं । अपने सर्वदा रहने के स्थानको स्वस्थानस्वस्थान और अपने विहार करनेके क्षेत्रको विहारवत्स्वस्थान कहते हैं। मूल शरीरको न छोड़कर जीवके प्रदेशोंका वेदना आदिके निमित्तसे शरीरके बाहर फैलना समुद्धात कहलाता है। इसके वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणान्तिक, तैजस, आहारक और केवली ये सात भेद हैं। उत्पन्न होने के प्रथम समयमें जीवके विग्रहगति या ऋजुगतिमें रहनेको उपपाद कहते हैं। इसप्रकार इन दश अवस्थाओं में से जहां जितनी अवस्थाएं संभव हों वहां उनकी अपेक्षा वर्त (१) असंखेञ्जदि-अ०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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