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________________ गा० २१ ] पेज्जदोसेसु बारस अणिश्रोगहाराणि ३९७ पजत्तापजत्त-पंचमण पंचवचि० [उब्धियकायजोगि] वेउब्वियमिस्स०इत्थिवेद-पुरिस० विभंग आभिणिबोहिय०सुद०ओहि संजदासंजद - चक्खुदंसण-ओहिदंसण-तेउ-पम्मसुक्कलेस्सा [सम्मा०]खइयसम्मा वेदग उवसम सासण सम्मामि०सणि त्ति वत्तव्वं । ६३८२. मणुस्सपजत्त-मणुसिणीसु पेजदोसविहत्तिया केत्तिया? संखेजा। सव्व० देवाणमेवं चेव । एवमाहार०आहारमिस्स०अवगद०मणपज्जव०संजद०सामाइय०छेदोवटावण परिहार०सुहुमसांपराइएत्ति वत्तव्यं । एवं परिमाणं समत्तं । बादर तेजकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म तेजकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म तेजकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, तेजोलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, सामान्य सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि, औपशमिक सम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंमें इसी प्रकार कथन करना चाहिये । अर्थात् इनमेंसे प्रत्येक स्थानमें पेज्ज और दोषसे विभक्त जीव असंख्यात हैं। ६३८२. मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियों में पेज्ज और दोषसे विभक्त जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें भी इसीप्रकार अर्थात् संख्यात जानने चाहिये। इसीप्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, और सूक्ष्मसांपरायिक संयतोमें भी कथन करना चाहिये। अर्थात् इन ऊपर कहे गये स्थानों में से प्रत्येक स्थानमें पेज्ज और दोषसे विभक्त जीव संख्यात होते हैं। इस प्रकार परिमाणानुयोगद्वार समाप्त हुआ। विशेषार्थ-परिमाणानुयोगद्वारमें पेज्ज और दोषसे युक्त जीवोंकी संख्या बतलाई गई है। जिसकी प्ररूपणा ओघ और आदेशके भेदसे दो प्रकारकी है। ओघप्ररूपणामें पेज्ज और दोषसे युक्त समस्त जीवराशिका प्रमाण अनन्त बतलाया है। तथा जिन मार्गणास्थानोंमें जीवोंकी संख्या अनन्त है पेज्ज और दोषकी अपेक्षा उनकी प्ररूपणाको भी ओघके समान कहा है। शेष मार्गणास्थानों में पेज्ज और दोषसे युक्त जीवोंकी संख्याकी प्ररूपणाको आदेशनिर्देश कहा है। इनमेंसे जिन मार्गणास्थानोंमें असंख्यात जीव हैं उनमें पेज्ज और दोषभावकी अपेक्षा भी उनकी संख्या असंख्यात कही है और जिन मार्गणास्थानों में संख्यात जीव हैं उनमें पेज्ज और दोषभावकी अपेक्षा उन जीवोंकी संख्या संख्यात कही है। अनन्तादि संख्यावाली मार्गणाओंके नाम ऊपर दिये गये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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