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________________ ३७४ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ * एवमुजुसुअस्स। १३५१. कुदो? जेण एत्थुद्देसे संगह-ववहारेहि सरिसो । तं पि कुदो? बहुसद्दच्चारणाए फलाभावादो । ण च णिप्फलेण ववहरंति ववहारिणो तेसिमयाणत्तप्पसंगादो। * सदस्स णोसव्वदव्वेहि दुट्ठो अत्ताणे चेव अत्ताणम्मि पियायदे। 8 ३५२. एत्थ जुत्ती उच्चदे, रो(दो)सस्स अहियरणं जीवो अजीवो वा ण होदि अनुसार उक्त गाथांशका अर्थ करने पर व्यवहारनयको संग्रहनयका अनुसरण कराया है। वीरसेनस्वामीने इन दोनों ही पाठोंकी संगति बिठलाई है। पहले पाठको स्वीकार करके वीरसेनस्वामीने जो उत्तर दिया है वह निम्नप्रकार है-जिस प्रकार नैगमनयसे आठ भंग कह आये हैं उसीप्रकार व्यवहारनयकी अपेक्षा आठ भंग जानना चाहिये, क्योंकि इन आठोंमें प्रिय और अप्रियरूपसे लोकसंव्यवहार देखा जाता है । तथा दूसरे पाठको स्वीकार करके जो उत्तर दिया है वह निम्नप्रकार है-आठों भंगोंको प्राप्त सभी द्रव्योंमें कार्यवश राग और द्वेष करता हुआ जीव देखा तो जाता है पर इन आठों भंगोंके द्वारा वचनविषयक संव्यवहार नहीं दिखाई देता है। इन दोनों अर्थों पर ध्यानसे जब विचार किया जाता है तब यह स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि इनके कथनमें केवल विवक्षाभेद है। पहले पाठमें लोकसंव्यवहारको प्रमुखता दी गई है और इसप्रकार आठ भंगोंका सद्भाव स्वीकार किया गया है। तथा दूसरे पाठमें आठ प्रकारका लोकसंव्यवहार मान कर भी वचनव्यवहार आठ प्रकारका नहीं माना गया है और इसप्रकार आठ भंगोंका निषेध किया है। * इसीप्रकार ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा समझना चाहिये । ६३५१. शंका-ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा भी इसीप्रकार क्यों समझना चाहिये ? समाधान-चूंकि इस विषयमें ऋजुसूत्रनय संग्रह और व्यवहारनयके समान है । अतः ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा भी इसीप्रकार समझना चाहिये । शंका-इस विषयमें ऋजुसूत्र संग्रह और व्यवहारनयके समान कैसे है ? समाधान-क्योंकि निष्फल होनेसे जिस प्रकार संग्रहनय बहुत शब्दोंके उच्चारणको स्वीकार नहीं करता है उसी प्रकार ऋजुसूत्र नय भी निष्फल होनेसे बहुत शब्दोंके उच्चारणको स्वीकार नहीं करता है। जिसका कोई फल नहीं है ऐसा व्यवहार व्यवहारी पुरुष कभी भी नहीं करते हैं, क्योंकि वे यदि निष्फल व्यवहार करने लगे तो उन्हें अज्ञानीपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। * शब्द नयकी अपेक्षा समस्त द्रव्योंके निमित्तसे न जीव द्वेष करता है और न राग करता है किन्तु आत्मा अपने आपमें द्वेष करता है और राग करता है। ६३५२. इस विषयमें युक्ति देते हैं-दोषका आधार न तो जीव है और न अजीव (१)-सुदस्स आ० । (२)-तेसिं मायाण-स० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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