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________________ गा० २१ कसाएसु पेज्जदोसविभागो ण परूवणं कुणइ संगहणओ। ३५०. 'संगह-ववहाराणं दुटो सव्वदव्वेसु पियायदे सव्वदव्वेसु' इदि केसि पि आइरियाणं पाठो अत्थि । तत्थ संगहस्स पुव्वं व कारणं वत्तव्यं । ववहारणओ पुण लोगसंववहारपरतंतो तेण जहा सव्वववहारा दीसइ तहा चेव ववहारइ ववहारणओ। लोगो च कजवसेण सव्वदव्वेसु दुठो पिओ य दीसइ अष्टभंगगएसु । ण च अहहि भंगेहि वयणविसयसंववहारो दीसइ, सव्वदव्वं कत्थ वि कया वि सव्वस्स पियमप्पियं चेदि संववहारदसणादो । तम्हा संगहववहाराणं सरिसत्तमेत्थ इच्छियव्वमिदि विदियस्स पाठस्स अत्थो। करता है किन्तु यह नय संग्रहप्रधान है अतः इस नयकी दृष्टिमें थोड़े अक्षरोंके द्वारा अर्थका ज्ञान हो जाने पर बहुत अक्षरोंका उच्चारण करना निष्फल है, इसलिये यह नय आठों भंगोंके द्वारा प्ररूपण नहीं करता है। ६३५०.किन्हीं आचार्योंके मतसे 'संग्रहनय और व्यवहारनयकी अपेक्षा जीव सभी द्रव्यों में द्वेष करता है और सभी द्रव्योंमें प्रीति करता है। ऐसा भी पाठ पाया जाता है । इनमेंसे संग्रहनयकी अपेक्षा पहले के समान कारण बतलाना चाहिये । अर्थात् 'संग्रहनयकी अपेक्षा जीव सभी द्रव्यों में द्वेष करता है और सभी द्रव्योंमें राग करता है' इसका जो कारण पहले कह आये हैं उसीका यहां भी कथन करना चाहिये । परन्तु व्यवहारनय लोकव्यवहारके अधीन है अतः जहां जैसा व्यवहार दिखाई देता है व्यवहारनय उसके अनुसार ही प्रवृत्ति करता है। अतः आठ भंगोंको प्राप्त हुए सभी द्रव्योंमें मनुष्य कार्यवश द्वेष करता हुआ और प्रेम करता हुआ देखा जाता है। पर आठों भंगोंके द्वारा वचनविषयक व्यवहार नहीं दिखाई देता है, क्योंकि सभी द्रव्य कहीं पर भी और किसी कालमें भी सभीको प्रिय और अप्रिय होते हैं ऐसा व्यवहार देखा जाता है। इसलिये यहां पर संग्रहनय और व्यवहारनयकी समानता स्वीकार करना चाहिये । यह दूसरे पाठका अर्थ है। विशेषार्थ-“दुट्ठो वा कम्हि दव्वे" इत्यादि गाथाका अर्थ कहते हुए वीरसेन स्वामीने दो पाठोंका उल्लेख किया है। पहला पाठ इसप्रकार है-'एवं ववहारणयस्स। संगहस्स दुट्ठो सव्वदव्वेसु । पियायदे सव्वदव्वेसु।' दूसरा पाठ इसप्रकार है-'संगहववहाराणं दुबो सव्वदव्वेसु, पियायदे सव्वदव्वेसु।' इनमेंसे पहले पाठको स्वयं वीरसेन स्वामीने स्वीकार किया है और दूसरे पाठको अन्य आचार्योंके द्वारा माना गया बतलाया है। संग्रहनयकी दृष्टिसे इन दोनों पाठोंके अर्थमें कोई अन्तर नहीं है। दोनों ही पाठोंमें संग्रहनयकी अपेक्षा जीव समस्त द्रव्योंमें द्विष्ट होता है और समस्त द्रव्योंमें प्रेम करता है' यह अर्थ स्वीकार किया है । भेद केवल व्यवहारनयकी अपेक्षासे अर्थ करने में है। पहले पाठके अनुसार उक्त गाथांशका अर्थ करने पर व्यवहारनयसे नैगमनयका अनुसरण कराया है और दूसरे पाठके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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